Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 304
________________ - १०. १०० ) सिद्धान्तसारः ( २७७ गतं शीलं गतं ज्ञानं गतं दानं गतं तपः । गतं शौचं गतं सत्यं गतं ध्यानं गता क्रिया ।। ९५ भव्यानामपि चित्तानि धर्मादपगतानि च । जैनी मुद्रापि दुःप्राप्या यास्मिन्कालेऽतिदुर्धरे ॥ ९६ तत्र जातोऽहमत्युच्चैः स्थानमानविवर्जितम् । ज्ञानाराधनतः किञ्चित्करोम्यस्यानुवर्तनम् ॥९७ जिनेन्द्रस्य मतस्यास्याचिन्त्यमाहात्म्यवर्तिनः । श्रद्धानादपि सिद्धयन्ति सन्तः संसारनिर्गताः ॥९८ यदि जनेश्वरे मार्गे निदानमतिनिन्दितम् । सद्रत्नत्रयलाभो मे तथाप्यस्तु भवे भवे ॥ ९९ ये शृण्वन्ति महाधियः शुभमतं सामन्तभद्रं वचो । वैचित्र्यं बहुमानमावहदिदं भ्रान्तविमुक्ता जनाः ॥ इस कलिकाल में शील-व्रतोंका पालन जिनसे होता है ऐसे सदाचार नष्ट हुए हैं। ज्ञान नष्ट हुआ, दान नष्ट हुआ और तप नष्ट हुआ, निर्लोभता नष्ट हुई, सत्य चला गया, ध्यान नष्ट हुआ और विनयादिक क्रिया नष्ट हुई ।। ९५ ।। ( भव्यभी धर्म में मंद आदर हुए हैं। ) - इस कलिकालमें भव्योंके चित्तभी धर्म से हट गये हैं । यह कलिकाल महाकठिन है । इसमें जिनमुद्राभी प्राप्त होना कठिन है ।। ९६ ।। इस कलिकालमें मैं उत्पन्न हुआ हूं। मैं उच्च स्थान और मानसे रहित हूं । मैं ज्ञानकी आराधना कर इस ज्ञानका कुछ अनुसरण करूंगा ।। ९७ ।। धारण ( जिनमतका श्रद्धान संसारनाशका कारण है । ) - अचिन्त्यमाहात्म्य करनेवाले इस जिनेंद्रमतका श्रद्धान करने से भी सज्जन संसारसे पार हो गये हैं अर्थात् उनका संसार अनंतानंत कालका नहीं रहा है । अर्द्धपुद्गल कालतक संसार में अधिकसे अधिक रहकर जीव मुक्त होता है । यद्यपि जिनेश्वरके मार्ग में निदान - भावि सुखोंकी आशा करना अतिशय निन्दित माना है तोभी मुझे भवभव में उत्तम रत्नत्रय लाभ होवे ऐसी मैं इच्छा करता हूं । निदान यद्यपि संसारवर्धक है परंतु वह भोगोंकी चाह करनेसे निद्य है और उससे संसार बढता है । रत्नत्रयलाभ, बोधिलाभ आदिकी चाह संसारवर्धक नहीं है; क्योंकि, वह प्रशस्त निदान है। ।। ९८-९९ ।। ( समन्तभद्रका वचन मुक्तिका कारण है । ) - जैनमत अर्थात् शास्त्र और अतिशय आदरको उत्पन्न करनेवाला, नानाविषयोंका प्रतिपादन जिसमें है ऐसा समन्तभद्र मुनिराजका वचन जो महाबुद्धिमान् पुरुष सुनते हैं वे भ्रान्तिसे रहित हो जाते हैं । कलासमूहमें अतिशय कुशल ऐसे वे पुरुष दो तीन भव धारण करके सुखसे मुक्तिके सुंदर नगरमें शीघ्र प्रवेश करते हैं ।। १०० ।। १ आ. मानं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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