Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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२८० )
सिद्धान्तसारः
( १२.८
आचारज्ञाः समाचारमन्येषां कथयन्ति ये । आचार्यास्ते भवन्त्यत्र गुरवो गरिमान्विताः ॥ ८ मोक्षार्थं मोक्षसच्छास्त्राण्यन्यानध्यापयन्ति ये । ज्ञानध्यानधना नित्यमुपाध्याया भवन्त्यमी ॥९ अन्येभ्यो नैव यच्छन्ति दीक्षां तीव्रतपस्विनः । साधयन्ति स्वसिद्धि ये साधवस्तेऽत्र कीर्तिताः ॥ १० भव्यैराराधनायां तेऽद्याराध्याः परमेष्ठिनः । तैरेवाराधितैः सर्वमन्यदाराधितं भवेत् ॥ ११ भव्यः क्षान्तिकरो' नित्यं हिताहितविचारकः । जिनशासन सिद्धान्तवेदी श्राद्धः सुसंयतः ॥ १२ माद्यन्मित्रकलत्राद्या भवभ्रान्तिविधायकाः । सर्वेऽप्यमी न मे किञ्चिदिति यो हृदि मन्यते ॥ १३
मुक्तावस्था प्राप्त हुई है वे सिद्ध परमेष्ठी आराधनेके लिये योग्य हैं। विशेष - ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंका नाश होनेसे जो आठ गुण प्राप्त हुए हैं उनके नाम - अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अव्याबाध, सम्यक्त्व, सौक्ष्म्य, अवगाहन, अगुरुलघु और अनंतवीर्य ॥ ७ ॥
( आचार्य परमेष्ठीका स्वरूप | ) - जो पांच प्रकारके ज्ञानादि आचारोंका पालन करते हैं और जो उसके ज्ञाता है, दस प्रकारके इच्छाकारादि समाचारोंका शिष्योंको बोध करते हैं वे आचार्य परमेष्ठी हैं । वे माहात्म्यके धारक प्रभावी गुरु हैं। विशेष - आचारवत्वादिक आठ गुण, बारह तप, दस स्थितिकल्प और छह आवश्यक ऐसे छत्तीस गुण आचार्य के कहे हैं ।। ८ ।
( उपाध्याय परमेष्ठीका स्वरूप । ) - जो ज्ञान और ध्यानरूप धनके स्वामी हैं, जो मोक्षप्राप्ति के लिये शिष्योंको मोक्षप्रद उत्तम सिद्धान्तशास्त्र हमेशा पढाते हैं वे उपाध्याय परमेष्ठी हैं ।। ९ ।।
( साधुपरमेष्ठीका स्वरूप । ) - जो अन्योंको - श्रावक श्राविकाओंको दीक्षा नहीं देते, जो तीव्र तपश्चरण करते हैं और जो अपनी सिद्धिको आत्मसिद्धिको - रत्नत्रयको साधते हैं वे इस लोकमें साधु कहे गये है ॥ १० ॥
भव्यजीव सम्यग्दर्शनादिक चार आराधनाओंमें पंचपरमेष्ठियोंकी आराधना करें । क्योंकि इनकी आराधना करनेसे सब अन्य आराधित होते हैं । अर्थात् सम्यग्दर्शनादिक चार आराधनायें पंचपरमेष्ठीयोंकी आराधना करनेसे आराधित होती हैं। क्योंकि इनका वैयावृत्त्य करना, इनका उपदेशा हुआ आचार - चारित्र पालना, इनके ऊपर श्रद्धान करना आदिक बातोंके पालनसे चारों आराधनाओं का पालन हो जाता है ।। ११ ।।
( भव्यका स्वरूप | ) - भव्य क्षमाशील होता है । सदा अपने हिताहितका विचार करता है । जिनशासन के सिद्धान्तको वह जानता है, पंचपरमेष्ठियोंपर श्रद्धा करता है । और उत्तम निर्दोष संयम पालन करता है- जितेन्द्रिय होता है ॥ १२ ॥
( भव्य जीवकी चिन्तना अर्थात् अनुप्रेक्षायें । ) - वह भव्य उन्मत्त मित्र, पत्नी आदिक पदार्थं संसारभ्रान्ति उत्पन्न करनेवाले हैं । ये सभी मेरे कुछ संबंधी नहीं हैं, ऐसा हृदयमें समझता
१ आ. क्षान्तिपरो
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