Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 314
________________ -१२. ५७) (२८७ शय्या च संस्तरोपस्था' निर्यापकगणस्तथा । प्रकाशना च हानिश्च प्रत्याख्यानं क्षमा पुनः ॥ ५५ क्षमणं सारणा शुद्धिः कवचः समता पुनः । ध्यानं लेश्या फलं वासो देहत्यागस्ततः परम् ॥ ५६ आराधना विधातव्या ह्येतत्सूत्रानुसारतः । अन्यथा जायते जन्तुमिथ्यात्वाराधनाधमः २ ॥ ५७ सिद्धान्तसारः अनुसार आराधना करनी चाहिये । यदि ऐसा नहीं किया जायगा, इनसे उलटा क्रियाकाण्ड किया जायेगा, तो वह यति-श्रावक आराधक मिथ्यात्वकी आराधनासे अधम होगा ।।५१-५७।। इन चालीस सूत्रपदोंका स्पष्टीकरण इस क्रम से है - १ अर्ह - सविचारभक्त प्रत्याख्यानके योग्य व्यक्तिको अर्ह कहते हैं । जो मुनि अथवा गृहस्थ उत्साह और बलसे युक्त है, जिसको मरणकाल अकस्मात् प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका विधिपूर्वक परगण में विहार होता है तथा वहां जाकर आहारका और कषायोंका त्याग विधीपूर्वक करता है ऐसे साधु तथा गृहस्थ के मरणको भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं अर्हप्रकरणमें उपर्युक्त लक्षणोंका व्यक्ति सल्लेखनाके योग्य है । २ लिंग - शिक्षा, विनय, समाधि वगैरह क्रिया भक्तप्रत्याख्यानकी सामग्री है । उस सामग्रीका यह लिंग योग्य परिकर है । सर्व परिकर सामग्री जुडनेपर जैसे कुंभकार घट निर्माण करता है, वैसे योग्य व्यक्तिभी साधन सामग्री पाकर सल्लेखना कार्य करता है । लिङ्ग शब्दका अर्थ चिन्ह होता है । संपूर्ण वस्त्रोंका त्याग अर्थात् नग्नता, लोच- हाथसे केश उखाडना, शरीरपरसे ममत्व दूर करना अर्थात् कायोत्सर्ग करना, प्रतिलेखन प्राणिदयाका चिन्ह अर्थात् मयूरपिच्छको हाथ में धारण करना इस तरह चार प्रकारका लिंग है । ३ शिक्षा - शास्त्राध्ययन । ज्ञानके बिना विनयादिक करना अशक्य है; अतः शास्त्राध्ययन करना चाहिये । जिनेश्वरका शास्त्र पापहरण करनेमें निपुण है; अतः उसको पढना चाहिये । करना । Jain Education International ४ विनय - मर्यादा पालन करना । गुरुओंकी उपासना करना । ५ समाधि- मनको एकाग्र करना, मनको शुभोपयोग में अथवा शुद्धोपयोगमें एकाग्र ६ अनियतावास - अनियत ग्राम, पुरादिक स्थानों में रहना । ७ परिणाम- अपने कर्तव्यका सदा विचार करना । ८ उपधित्याग - परिग्रहका त्याग करना । ९ श्रेणिसमारोहण - उत्तरोत्तर शुभपरिणामोंकी उन्नति करना । १० भावना - परिणामों में संक्लेश नहीं उत्पन्न होनेका अभ्यास करना । ११ सल्लेखना - शरीर और कषायोंको कृश करना । १ आ. संस्तरः पूतो २ आ जन्तोः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324