Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 317
________________ २९०) सिद्धान्तसारः (१२. ६१ आराधनामहाशास्त्रवाचनादत्तमानसः । स्थातव्यं श्रीजिनागारे भव्यनिर्यापकान्विते ॥ ६१ असंक्लिष्टा च संक्लिष्टा भावना द्विविधा मता । संक्लिष्टां च परित्यज्य भावयेदपरां बुधः॥६२ संसर्गाःसन्ति ये केचिद्रागद्वेषस्य बंहकाः । वर्जनीया भवन्त्येतैः संक्लिष्टा भावना यतः ॥ ६३ कन्दर्पकौत्कुचालादि' भावयञ्जायते यदि । कन्दर्पभावनोपेतो ह्यपेतः शुभसन्ततः ॥ ६४ ज्ञानस्य ज्ञानयुक्तस्य धर्माचार्यस्य साधुषु । मायाद्यवर्णवादी स्याकिल्बिषी' भावनान्वितः ॥ ६५ . ( सल्लेखनाधारक जिनमंदिर में रहें।)- आराधना- महाशास्त्रके पढने में जिन्होंने अपना मन एकाग्र किया है, ऐसे मुनियोंको ( सल्लेखना धारक मुनिको ) भव्य और निर्यापक जिसमें हैं ऐसे श्रीजिनमंदिरमें निवास करना चाहिये ॥ ६१ ॥ ( भावनाके भेद । )- असंक्लिष्ट-भावना और संक्लिष्ट-भावना ऐसे भावनाके दो भेद हैं। परंतु संक्लिष्टभावनाओंको छोडकर असंक्लिष्टभावनामें विद्वान् मुनि स्थिर रहें-शुभ और शुद्ध भावनाओंका हमेशा चिन्तन-अभ्यास करें ।। ६२ ।। रागद्वेषको वृद्धिंगत करनेवाले जो संग-मिथ्यादृष्टि कामी आदि पुरुषोंकी संगति है उसे त्यागना चाहिये । यदि इनका त्याग नहीं किया जायेगा तो इनसे संक्लिष्ट भावनाओंकी प्रसूति होगी ॥ ६३ ॥ ( कन्दर्पभावनाका लक्षण । )- कंदर्प-प्रीतिकी उत्कटतासे-तीव्रस्नेहसे हास्यसहित असभ्य वचन बोलना, भंडवचन बोलना कंदर्पवचन है । अतिशय रागवश होकर, हसकर दूसरोंके प्रति शरीरके असभ्य अभिनयके साथ असभ्य वचनोच्चार करना कौत्कुच्य है, कुचाल है। इत्यादि भावनाओंका यदि कोई साधु चिंतन करता है तो वह कन्दर्पभावनाओंसे युक्त है । ऐसी भावनाओंसे वह शुभकार्योंसे और शुभपरिणामोंसे दूर होता है । ६४ ॥ ( किल्बिषभावनाका स्वरूप । )- जो मुनि ज्ञानका, ज्ञानयुक्त केवली भगवंतका, धर्मका तथा उसका प्रतिपादन करनेवाले गणधरादि श्रुतकेवलियोंका, उपाध्याय मुनियोंका और रत्नत्रयाराधक साधुओंका अवर्णवाद प्रगट करता है अर्थात् उनमें दोष न होते हुएभी दोष दिखाता है तथा जो ज्ञानमें-श्रुतज्ञानमें कपट करता है अर्थात् जो उसमें प्रेम तो नहीं रखता है; परंतु ऊपरसे विनय करता है वह ज्ञानविषयक मायावी है। केवलियोंमें मानो आदर दिखा रहा है परंतु मनमें उनकी पूजा करना जिसे पसंत नहीं है वह केवलिविषयक मायावी है। चारित्रको धर्म कहते है इस धर्मकी मैं अतिशय भक्ति करता हूं ऐसा बाह्य धर्माचारसे लोगोंको दिखाता है, परंतु मनमें धर्मके प्रति जिसका अनादर-अरुचि है, वह धर्म मायावी है। आचार्य, १ आ. कौतुकूच्यादि २ आ. यतिः ३ आ. कैल्बिषी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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