Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 313
________________ २८६) सिद्धान्तसारः (१२. ४६ दर्शनज्ञानचारित्रत्रय 'संक्लिष्टयोगतः । मृत्युभवति जीवानामप्रशस्तः स एव हि ॥ ४६ पावस्थादिकरूपेण बलाकामरणं मतम् । सप्तदशेति सन्त्यत्र मरणानि शरीरिणाम् ॥ ४७ ज्ञात्वेति विबुधेनात्र त्यक्त्वासानि सर्वथा। धीरेण च निजप्राणास्त्याज्याः पण्डितमत्यना॥४८ अधीरेणापि मर्तव्यं प्राणिनामायुषः क्षये । तस्माद्धर्यवता' प्राणसर्जनं दुःखभर्जनम् ॥ ४९ जैनराद्धान्तसूत्राणामभिप्रायेण धीधनाः । क्रियाकाण्डं प्रकुर्वन्ति तानि वक्ष्येधुना ततः ॥ ५० अर्हो लिङ्गच शिक्षा च विनयं च तथा पुनः । समाध्यनियतावासौ परिणामस्ततः परम् ॥५१ उपधेर्वर्जनं श्रेणिसमारोहणमुत्तमम् । तपसो भावना पूता सल्लेखनमनिन्दितम् ॥ ५२ दिशा परस्परं क्षान्तिरनशासनमुत्तमम् । चर्या च मार्गणा चेति सुस्थितः स्वसमर्पणम ॥ ५३ परीक्षाराधनायाश्च निविघ्नेनावलोकनम् । आपच्छा प्रतिपच्छा च गरोरालोचना पुनः ॥ ५४ ( अप्रशस्त मरण। )- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें संक्लेश परिणाम उत्पन्न होकर जो मृत्यु होती है वह अप्रशस्त मरणही है ।। ४६ ।। (बलाकामरण। )- पावस्थादिक रूपसे जो मरण प्राप्त होता है उसे बलाका मरण कहते हैं अर्थात् पार्श्वस्थादिक जो मुन्याभास हैं उनके स्वरूपमें मरण होना, भ्रष्ट मुनि होकर मरण करना बलाकामरण है। इस प्रकार यहां सत्रह प्रकारके मरणोंका वर्णन किया है ॥४७॥ बालबाल मरणादिक मरण असाधु हैं अर्थात् संसारमें घुमनेवाले हैं ऐसा समझकर विद्वान् धीर व्यक्ति उनका त्याग कर अपने प्राण पण्डितमृत्युसे छोडे ।। ४८ ।। (धैर्यसे मरण दुःखनाशक हैं। )- आयुष्य जब समाप्त होता है तब धैर्यगलित होनेपरभी मरनाही पडता है। इसलिये-धैर्यवान् लोगोंका जो मरण है वह दुःखको जलानेवाला है । तात्पर्य-धैर्यसे प्राणत्याग करनाही श्रेष्ठ है ।। ४९ ।। ( क्रियाकाण्डका वर्णन । )- जैन सिद्धान्तसूत्रोंके अनुसार विद्वज्जन ( मुनि ) क्रियाकाण्ड करते हैं इसलिये उस क्रियाकाण्डका अब मैं वर्णन करता हूं ॥ ५० ॥ ( सविचारभक्तप्रत्याख्यानके सुत्रोंका विवरण।)- अर्ह, लिंग, शिक्षा, विनय, समाधि, अनियतावास ( अनियतविहार ) परिणाम, उपधित्याग, उत्तम श्रेणिसमारोहण, पवित्र तपकी भावना, प्रशंसनीय सल्लेखना, दिशा, परस्परक्षान्ति (क्षमा), उत्तम अनुशासन, चर्या, मार्गणा, सुस्थित, स्वसमर्पण, परीक्षा, निर्विघ्नतासे अवलोकन करना, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, आलोचना, गणदोषालोचना पवित्र संस्तरोपस्था, निर्यापकगण, प्रकाशन, अवहानि, प्रत्याख्यान, पुनः क्षमा, क्षमण, सारण, शुद्धि, कवच, समता, ध्यान, लेश्या, फल, वास और देहत्याग। इन सूत्रोंके १ आ. त्रये २ आ. बालाक ३ आ. धैर्यवतां ४ आ. परः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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