Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
(२७० )
गन्धरूप रसस्पर्शशब्दसंरक्षणाय च । क्रूरभावे मनोरोधश्चतुर्थं रौद्रमुच्यते ॥ ४५ संयतासंयतान्तानां जीवानामुपर्वाणतम् । चतुविधमिदं रौद्रं श्वत्रभूमिप्रवेशकम् ॥ ४६ आज्ञाविचारणा तस्मादपायविचयः परः । विपाकविचयश्चान्यः संस्थानविचयः पुनः ॥ ४७ इत्थं चतुविधं धर्म्यं धर्माधारैनिगद्यते । येन प्राप्नोति जीवोऽयं सिद्धिसौख्यं निरन्तरम् ॥ ४८ उपदेष्टुरभावेन मन्दबुद्धितयाथवा । पदार्थानां हि सूक्ष्मत्वात्कर्मोदयवशादथ ॥ ४९ सद्दृष्टान्ताद्यभावेन सर्वज्ञाज्ञाप्रमाणतः । अर्थावधारणं धर्म्यं स्यादाज्ञाविचयः स्फुटम् ॥ ५०
(११. ४५
( परिग्रहानंद रौद्रध्यान । ) - गंध, रूप, रस, शब्द, स्पर्शयुक्त पदार्थोंका संग्रहरक्षण के लिये अतिशय संक्लेश परिणाम होकर उनमें मनकी एकाग्रता होना चौथा रौद्रध्यान है ।। ४५ ।।
( रौद्रध्यान के स्वामी । ) - यह चार प्रकारका रौद्रध्यान पहले गुणस्थान से पांचवे संयतासंयत गुणस्थानतक होता है और यह नरकभूमिमें प्रवेश करनेवाला है ॥ ४६ ॥
विशेष - अविरत जीवको रौद्रध्यान होना योग्य है, क्योंकि वह व्रतरहितही होता है । उसको हिंसादिकोंका त्याग नहीं है । परंतु जो देशव्रतोंको पालता है उसे रौद्रध्यान कैसे होगा ? उत्तर- उसकोभी कदाचिद् हिंसादिकोंका आवेश होता है और धन, स्त्री, कुटुंबवर्गका संरक्षण करनेसे संक्लेश परिणाम होंगे जिससे रौद्रध्यान कदाचिद् हो सकता है । परन्तु वह नरकगति आदिका कारण नहीं होता । क्योंकि सम्यग्दर्शनका सामर्थ्य उसको रहता है । संयतको अर्थात् मुनिको रौद्रध्यान नहीं होता । यदि वह होगा तो उसका संयम नष्ट होगा ।। ४६ ।। ( सर्वार्थसिद्धि हिसानृतादि सूत्र )
( धर्मध्यानका भेदसहित विवेचन । ) - धर्मध्यानका पहला भेद आज्ञाविचारणा नामक है । दूसरा भेद अपायविचय है । तीसरा भेद विपाकविचय और चौथा भेद संस्थानविचय है । इस प्रकारसे धर्मके आधारभूत आचार्य धर्म्यध्यानके चार भेद कहते हैं । जिससे यह जीव निरंतर सिद्धिका सुख प्राप्त करता है || ४७-४८ ।।
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( आज्ञाविचय धर्मध्यान । ) - उपदेशकका अभाव होनेसे अर्थात् जीवादिक तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप कहनेवाले गुरुका अभाव होनेसे, तथा अपनी बुद्धि मंद होनेसे, पदार्थोंका स्वरूप सूक्ष्म होनेसे तथा कर्मोदय होनेसे, उत्तम निर्दोष दृष्टान्तादिकोंका अभाव होनेसे सर्वज्ञके आगमको प्रमाण समझ कर जीवादि पदार्थोंका निश्चय करना आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है । सर्वज्ञकी आज्ञाको प्रमाण कर यह वस्तुस्वरूप ऐसाही है, जिनेश्वर अन्यथाभाषी - असत्यभाषी नहीं हैं ऐसा मानकर गहनपदार्थोंपर श्रद्धान करके जीवादि पदार्थोंका निश्चय करना यह आज्ञाविचय है । अथवा स्वतः सिद्धान्त के अविरुद्ध जीवादिक पदार्थोंको जाननेमें जो प्रवीण है तथा शिष्यादिकोंको सिद्धान्तसे अविरुद्ध तत्त्वसमर्थनके लिये तर्क, नय और प्रमाणकी योजना करके निवेदन करनेकी इच्छासे जो
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