Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
(११. ६०
श्रुतकेवलिनः साधोराद्ये शुक्ले तु शोभने । धर्मध्यानं च तस्येति कथयन्ति जिनेश्वराः ॥ ६० परे द्वे भवतस्तावदतिशुद्धऽतिनिर्मले । केवलज्ञानयुक्तस्य सयोगायोगिनः पुनः॥ ६१ यत्पृथक्त्ववितकं तत्रियोगेषु प्रजायते । एकयोगस्य चैकत्ववितकं चारुतान्वितम् ॥ ६२ केवलकाययोगस्य ध्यानं सूक्ष्मक्रियं मतम् । समुच्छिन्नक्रियं तावदयोगस्य महात्मनः ॥ ६३ सवितर्कप्रवीचारमाद्यध्यानं भवेदिह । सवितर्काप्रवीचारं द्वितीयमतिदुर्लभम् ॥ ६४ श्रुतज्ञानं वितर्कः स्यात्प्रवीचारस्तु यः पुनः । अर्थव्यञ्जनसद्योगमक्रान्तिरतिशोभना ॥ ६५
विशेष- जैसे मलरहित होनेसे कपडा शुक्ल कहा जाता है, वैसे शुद्ध आत्मस्वरूप परिणति इस ध्यानसे प्राप्त होती है । इसलिये इसे शुक्ल कहते हैं। आत्माकी निर्मलतामें शुक्लगुणकी सदृशता समझकर इस ध्यानको शुक्ल कहते हैं ।
( शुक्लध्यानके स्वामी। )- श्रुतकेवली मुनिराजको पहले दो उत्तम शुक्लध्यान होते हैं। धर्मध्यानभी उसी श्रुतकेवली साधुको होता है ऐसा जिनेश्वर कहते हैं। तीसरा और चौथा शुक्लध्यान निर्मल हैं, और अतिशय निर्मल हैं ; क्योंकि, संपूर्ण कषाय और घातिकर्मका नाश होनेसे वे उत्पन्न होते हैं, इसलिये वे ध्यान अत्यंत निर्मल और विशुद्ध हैं । सयोगकेवली और अयोगकेवली जिनेश्वरको ये दो ध्यान होते हैं । ६०-६१ ॥
पहला पृथक्त्ववितर्क- नामक ध्यान तीन योगोंके धारकोंको होता है। एकत्ववितर्क नामक दूसरा सुंदर ध्यान तीन योगोमेंसे किसी एक योगके धारकको होता है । केवल काययोगके धारकको तीसरा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नामक ध्यान होता है और चौथा समुच्छिन्नक्रिय नामका ध्यान अयोगी महात्माको- चौदहवे गुणस्थान धारक महापुरुषको होता हैं । विशेष-सकल श्रुतधरको अपूर्वकरणके पूर्व में चौथे गुणस्थानसे सातवे गुणस्थानतक धर्मध्यान है । अपूर्वकरणसे लेकर उपशांतकषायतक चार गुणस्थानोंमें पहला पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान है। क्षीण कषाय गुणस्थानमें एकत्ववितर्क अविचार नामक दूसरा शुक्लध्यान हैं । ६२-६३ ॥
( वितर्क और विचारका स्पष्टीकरण । )- पहली पृथक्त्ववितर्कविचार नामक ध्यान वितर्कसे युक्त और प्रविचार युक्त है । और दुसरा शुक्लध्यान अतिशय दुर्लभ है तथा वह वितर्कके साथ होता और अप्रवीचार है ।। ६४ ॥
श्रुतज्ञानको वितर्क कहते हैं और शोभना- निर्मल ऐसी अर्थसंक्रान्ति, व्यंजनसंक्रान्ति और योगसंक्रान्ति होती है । अर्थात् पहले शुक्लध्यानमें वितर्क और विचार होता है । विशेषश्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है । मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय- मनःपूर्वक होता है । मतिज्ञानके अनन्तर नो इन्द्रियके प्राधान्यसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । यद्यपि ईहादिक
१ आ. आद्यं
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