Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 300
________________ -११. ७१) सिद्धान्तसारः (२७३ अर्थो ध्येयः सुद्रव्यं वा पर्यायो वा निगद्यते । व्यञ्जनं वचनं योगः कायवाक्चित्तलक्षणः ॥६६ द्रव्यं विहाय पर्यायं परिहृत्य त्वतोऽपि तत् । द्रव्यं यातीति संक्रान्तिव्यस्य कथिता बुधः ॥६७ श्रुतस्य वचनं तावदेकमादाय तत्क्षणात् । गृह्णात्यन्यत्ततोऽप्यन्यद्वयञ्जनस्येति वर्तनम् ॥ ६८ काययोगं परित्यज्य गृह्णात्याग्रहजितः । योगान्तरं मता सेयं योगसंक्रान्तिरुत्तमैः ॥ ६९ यत्परिवर्तनं चैतत्प्रवीचारः स उच्यते । स्वाध्यायाहितसच्चित्ततर्कसामर्थ्यसंभवः ॥ ७० पृथक्त्वादिति वीचारसामर्थ्यप्रगतं मनः । यस्यापर्याप्तबालस्योत्साहवच्चाव्यवस्थितम् ॥ ७१ मतिज्ञानभी- नोइंद्रियसे उत्पन्न होते हैं तो भी अवग्रहके विषयकोही वे विशेषतया जानते हैं। वैसा श्रुतज्ञान मतिज्ञानके विषयकोही यदि जानता तो वह अलग ज्ञान नहीं माना जाता। श्रुतज्ञानका विषय मतिज्ञानसे अपूर्व है । एक घडेको इंद्रिय और मनके द्वारा जानकर उसके जातिके देश, काल, रूप आदिकसे विलक्षण घडेको जो जानता है वह ज्ञान श्रुतज्ञान है । अथवा अनेक प्रकारोंसे युक्त अर्थका निरूपण करनेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं । अथवा इंद्रिय और अनिंद्रयसे एकजीव वा अजीव पदार्थको जानकर उसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव और अल्पबहुत्व आदि प्रकारोंसे पदार्थ निरूपण करने में जो ज्ञान समर्थ है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। ऐसे श्रुतज्ञानको यहां वितर्क कहा है- विशेष प्रकारोंसे जीवादिक पदार्थोंका ऊह करना, व्याप्ति आदिका निर्णय करना वितर्क है । प्रवीचार- अर्थ संक्रान्तिको, व्यंजनसंक्रांतिको और योग संक्रान्तिको वीचार कहते है। परिवर्तनको संक्रान्ति कहते है ॥ ६४-६५ ।। ( राजवातिक प्रथम अध्याय सूत्र मतिश्रुतावधीति ) ( संक्रान्तिका स्पष्टीकरण । )- अर्थ - ध्येयवस्तुको अर्थ कहते हैं । वह ध्येय द्रव्य और पर्यायरूप हैं । व्यंजन- वचन, शब्द, वाक्य आदिको व्यंजन कहते हैं । योग- शरीर, वचन और मनकी प्रवृत्तिसे जो आत्मप्रदेशोंमें चंचलता उत्पन्न होती है उसे योग कहते हैं। अर्थसंक्रान्ति द्रव्यको छोडकर पर्यायको ध्येय समझकर उसका विचार करना, पर्यायको छोडकर द्रव्यकी चिन्ता करना हैं । अर्थात् शुक्लध्यानका विषय कभी द्रव्य होता है और कभी पर्याय होता है, कभी द्रव्यांतर होता है । एक विषयमें स्थिरता नहीं होती। बार बार परिवर्तन होता है। इसको अर्थसंक्रान्ति कहते हैं ।। ६६-६७ ॥ व्यंजनसंक्रान्ति- श्रुतका एक वचन लेकर उसका विचार कर फिर अन्य श्रुतवचनका चिन्तन करना, उसे छोडकर तीसरे श्रुतवचनका विचार करना, उसेभी छोडकर चौथे श्रुतवचनका अवलंब करना, ऐसे विचारको व्यंजनसंक्रान्ति कहते हैं । आग्रहजित योगिराज काययोगको छोडकर अन्ययोगका आश्रय करते हैं इसको उत्तम पुरुषोंने योगसङक्रान्ति माना हैं ॥६८-६९।। इस प्रकार इन तीन प्रकारके परिवर्तनोंको प्रवीचार कहते हैं। यह प्रवीचार स्वाध्यायसे उत्तम मनमें उत्पन्न हुए तर्कका फल है ॥ ७० ॥ पहले शुक्लध्यानमें योगीका मन वीचारके सामर्थ्यसे अधिक उत्पन्न होता है। परंतु जैसे बालकका उत्साह अल्प होता है वैसे उस योगीका मन मोहकर्मप्रकृतियोंका शनैः शनैः क्षपण S.S.35. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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