Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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(११. १६
सन्देहहन्तृशास्त्रस्यानुवादो' वाचना मता । ससन्देहपरिप्रश्नः प्रच्छनार्थदृढाय वा ॥ १६ निश्चितार्थस्य शास्त्रस्य मनोऽभ्यासः सतां मतः । यो वाचासावनुप्रेक्षा' भवदुःखविनाशिनी ॥ १७ परिघोषविशुद्धं यत्परिवर्तनमुत्तमम् । तदाम्नाय इति प्राज्ञाः कथयन्ति यतीश्वराः ॥ १८ महाधर्मकथानां यत्प्रख्यापनमनारतम् । धर्माख्यानं मतं तद्धि संसारासातशातनम् ॥ १९ सर्वेभ्यो यतं मूलं स्वाध्यायः परमं तपः । यतः सर्वव्रतानां हि स्वाध्यायो मूलमादितः ५ ॥ २० स्वाध्यायाज्जायते ज्ञानं ज्ञानात्तत्त्वार्थसङग्रहः । तत्त्वार्थसङग्रहादेव श्रद्धानं तत्त्वगोचरम् ॥२१ तन्मध्यैकगतं पूतं तदाराधनलक्षणम् । चारित्रं जायते तस्मिंस्त्रयीमूलमयं मतम् ॥ २२ प्रशस्ताध्यवसायस्य स्वाध्यायो वृद्धिकारणं । तेनेह प्राणिनां निन्द्यं सञ्चितं कर्म नश्यति ॥ २३
२६६)
ज्ञानकी भावनासे आलस्यका त्याग करना स्वाध्याय 1
१ वाचना - संदेह दूर करनेवाले शास्त्रका अनुवाद कहना ।
२ पृच्छना - मनमें उत्पन्न हुए संदेहको दूर करने के लिये जो प्रश्न करना उसको पृच्छना कहते हैं अथवा जो अभिप्राय मनमें निश्चित किया है उसको पुष्ट करनेके लिये प्रश्न करना । ३ अनुप्रेक्षा - जिसका अर्थ निश्चित जाना है ऐसे शास्त्रका मनसे अभ्यास करना
उसे सज्जनोंको मान्य अनुप्रेक्षा कहते हैं ।
४ आम्नाय - घोषशुद्धतासे शास्त्रको अच्छी तरह बार बार पढना आम्नाय है ऐसा विद्वान् यतीश्वर कहते हैं ।
५ धर्मदेशना - लोकोद्धारक ऐसे महान् जैनधर्मका जो हमेशा उपदेश करना उसको धर्मदेशना कहते हैं । वह संसारका दुःख नष्ट करनेवाली है ।। १६-१९॥
( स्वाध्यायकी श्रेष्ठता । ) - सर्व व्रतोंकी अपेक्षासे देखा जाय तो यह स्वाध्यायव्रत । तथा यह स्वाध्याय उत्तम तप है । क्योंकि सर्वव्रतोंका स्वाध्याय आदिमूल
मूल माना है ॥ २० ॥
सिद्धान्तसारः
स्वाध्याय से ज्ञान होता है और ज्ञानसे जीवादिक तत्त्वार्थोंका संग्रह होता है । तत्त्वार्थका संग्रह होने से तत्त्वविषयक श्रद्धान होता है । रत्नत्रयके बीचमें पवित्र सम्यग्ज्ञान है और वह ज्ञानाराधनात्मक है । सम्यग्ज्ञान होनेसे चारित्र होता है अतः यह स्वाध्याय रत्नत्रयका मूल माना है ।। २१-२२ ।।
जो जीवके उत्तम परिणाम होते हैं- शुभ और शुद्ध परिणाम होते हैं उनकी वृद्धिका कारण स्वाध्यायही है । इस स्वाध्यायसे प्राणियों का निद्य पूर्वबद्ध कर्म विनष्ट होता है ।। २३ ।।
१ आ. निःसन्देहस्य २ आ. ससन्देहे ५ आदिमं
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३ आ. योऽसावनुप्रेक्षा
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४ आ. सर्वेभ्योऽपि व्रतेभ्योऽयं
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