Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-१०. ९८)
सिद्धान्तसारः
(२५३
प्रियधर्मादिकाज्ञात्वा पञ्चाशत्पुरुषान्सदा । प्रायश्चित्तं प्रदातव्यं यथोक्तं मुनिपुङ्गवः ॥ ९५ अज्ञानपि' बहु ज्ञात्वा जिनागमनिवेदितान् । पुरुषान्दीयते दण्डो विविधागमपारगः ॥ ९६ आलोचना प्रतिक्रान्तिस्तद्वयं त्याग एव वा । व्युत्सर्गश्च तपच्छेदः परिहारोऽभिरोचनम् ।
मलं वापि दशैतानि शोधनानि जिनागमे ॥ ९७ शोधयितुं न यो दोषः शक्यते तपसापि वा। दीक्षा विच्छिद्यते तेन क्लिन्नताम्बूलपत्रवत् ॥ ९८
__ जिनको धर्मप्रिय है ऐसे पचास पुरुषोंको ( ? ) जानकर मुनिश्रेष्ठ सदा आगमोक्तप्रायश्चित्त श्रद्धारहित मुनिको देवें ।। ९५ ।।
नाना प्रकारके आगमके पारगामी मुनि जिनागममें कहे हुए अनेक अज्ञ पुरुषोंको जानकर प्रायश्चित्त देवें ॥ ९६ ॥
(प्रायश्चित्तके दशभेद । )- आलोचना- आलोचनाके दस दोषोंका त्याग कर गुरुको अपने प्रमाद दोष कहना आलोचना है। प्रतिक्रमण- यह मेरा दोष मिथ्या हो जावें ऐसा कहकर दोष दूर करना । तदुभय- दोष होनेपर प्रतिक्रमण और आलोचना दोनोंके द्वारा जो नष्ट किये जाते हैं उन्हें तदुभय कहते हैं । विवेक- जिनके ऊपर ममत्व उत्पन्न हुआ है ऐसे अन्नपानादिक त्यागना विवेक है । अथवा अप्रासुक पदार्थ विस्मृतिसे ग्रहण किये जानेपर अथवा ( त्याग किये हुवे ) प्रासुक पदार्थका ग्रहण किया गया तो उसका स्मरण पूर्वक त्याग करनाभी विवेक हैं । मलमूत्रादि क्षेपण करते हुए जो दोष हुए हैं उनके निराकरणार्थ जो शरीरके ऊपर ममत्व छोडकर अन्तर्मुहूर्तादि कालपर्यन्त कायोत्सर्ग करना उसे व्युत्सर्ग तप कहते हैं । तप- कुछ अपराधोंके क्षालनार्थ उपवास, आचाम्ल, निर्विकृति आदिक विधि करना वह तप प्रायश्चित हैं। छेद-अपराध होनेपर दीक्षामेंसे दिन, पक्ष, मास आदिक कम किये जाते हैं वह छेद प्रायश्चित्त है। मूलपार्श्वस्थादिक मुन्याभासरूप अवस्था प्राप्त होनेसे संपूर्ण दीक्षा नष्ट होकर पुनः दीक्षा देना मलप्रायश्चित्त है। परिहार- पक्ष मासादिक कालमर्यादाकी अपेक्षासे संघसे दूर करना परिहार कहते हैं । पारंचिक- अनेक महापराध करनेपर जो चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघसे यह महापापी है, यह जिनमतबाह्य है, इसको वन्दन मत करो ऐसी घोषणा देकर अनपस्थापना नामक प्रायश्चित्त देकर देशसे निकाला जाता है वह मुनिभी स्वधर्मरहितक्षेत्र में जाकर आचार्यसे दिया हुआ प्रायश्चित्तका पालन करता है। ऐसे दस प्रायश्चित्त जिनागममें कहे हैं । विद्वान आचार्य दोषानुसार जानकर अपराधीको प्रायश्चित्त देवें ॥ ९७ ॥
( दीक्षाच्छेद कब किया जाता है ? )- जो दोष तपश्चरणसेभी निवारित नहीं किया जाता- दूर नहीं होता ऐसे दोषसे दीक्षा छेदी जाती है अर्थात् वह दोष दीक्षाकोभी नष्ट करता है । जैसे पानीसे भीगा हुआ ताम्बूलपत्र सड जाता है वैसे कोई दोष मुनियोंकी दीक्षाको नष्ट करता है ॥ ९८॥
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१ आ. अन्यानपि बहूज्ञात्वा इत्यपि पाठः ।
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