Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 290
________________ -१०. १६०) सिद्धान्तसारः (२६३ अतुलसत्त्ववतां सुमहात्मनां चरितमेतदनिन्द्यमनेकधा । कथयितुं न हि संप्रति साधवो धृतधियः किमुताचरितुं पुनः ॥१६८ असमसंयमनाय जिनेश्वरव्रतमिदं हदये विधतं सताम। भवति निर्वचनीयपदप्रदं कृतवतां बत तत्किमिहोच्यते ॥१६९ इति श्रीसिद्धान्तसारसङग्रहे पण्डिताचार्यश्रीनरेन्द्रसेनविरचिते निर्जराप्रायश्चित्तनिरूपणं दशमोऽध्यायः। __ (प्राचीन मुनियोंके चारित्रका पालन करनेमें आजके मुनि असमर्थ हैं। )- अनुपम धैर्य और सामर्थ्य धारण करनेवाले महापुरुषोंका चारित्र प्रशंसनीय और अनेक प्रकारका है। आज स्थिर बुद्धिवाले आजके साधु उस चारित्रके कथनमें समर्थ नहीं है फिर आचरण करनेमें वे कैसे समर्थ होंगे? ॥ १६८ ॥ असम संयम-अनुपम चारित्रके लिये जिन सज्जनोंने यह जिनेश्वरका व्रत हृदयमें धारण किया है, उनको यह व्रत अनिर्वचनीय अकथनीय उत्कृष्ट पद देनेवाला है। परंतु जो यह व्रत धारण किये हुये हैं उनको जो पद प्राप्त होगा उसकी महिमा यहाँ कौन कह सकता है ? ॥ १६९॥ श्रीपंडिताचार्य श्रीनरेन्द्रसेनविरचित-सिद्धान्तसारसंग्रहमें निर्जरा और प्रायश्चित्तका वर्णन करनेवाला दसवां अध्याय समाप्त हुआ। २ आ. इति श्रीसिद्धान्तसारसंग्रहे आचार्यश्रीनरेन्द्रसेनविरचिते दशमोऽध्यायः समाप्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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