Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 288
________________ -१०. १६०) सिद्धान्तसारः (२६१ यतिना सह या वाच्यं गतार्या-नामधारिका । हा हा कष्टं वचोऽप्यस्या' महापापमिति श्रुतम् ॥ तस्मान्नामापि' न ग्राह्यमुभयोरनयोरिह । अन्येनापि प्रयुक्तेऽस्मिन्पिधातव्ये श्रुती क्षणात् ॥ १५३ रजसो दर्शनाच्छुद्धिरार्याणां क्षमणैरथ । चतुभिर्नीरसाहारैर्यथाशत्त्या प्रजायते ॥ १५४ चतुर्थे दिवसे तस्या मौनेनावश्यका क्रिया। मता पश्चादगरोः पार्वे व्रतं ग्राह्य पुनस्तया ॥ १५५ मासे मासे च भङगः स्याद्रामाणां रजसा व्रते। अत एव न शुद्धयन्ति स्त्रियो हीनमयच्युताः॥ स्नानं हि त्रिविधं प्रोक्तं व्रतान्मन्त्रजलात्पुनः । तोयात्स्नानं गृहस्थानां यतीनां व्रतमन्त्रतः ॥ १५७ एकादशविधाः सन्ति श्रावका गणभेदतः। तेषामागमतः किञ्चिच्छोधनं निगदाम्यहम ॥ १५८ आद्यो दर्शनमात्रेण द्वितीयो व्रतयुक्तितः । सामायिकी तृतीयः स्याच्चतुर्थः प्रोषधी पुनः ॥ १५९ सचित्ताहारनिर्मुक्तो दिनब्रह्मचरः पुनः' । ब्रह्मचारी सदान्यश्च निरारम्भोऽपरिग्रहः ॥ १६० साथ निंदाको- अपकीर्तिको प्राप्त हुई है वह केवल आर्यिका नाम धारण करनेवाली है, वह भावार्यिका नहीं रही। भावार्यिकाके गुण उसमें कुछभी नहीं हैं । अरेरे उसका नामभी महाकष्टकारक है । उसका नामश्रवणभी महापापका कारण है। इसलिये उन दोनोंका नामभी नहीं ग्रहण करें। यदि किसीने उनके नामका उच्चारण किया तो अपने दो कान हाथोंसे ढक ॥ १५१-१५३ ॥ (रजस्वला आर्यिकाकी शुद्धि।)- रजके दीखनेपर आर्यिकाकी शुद्धि चार उपवासोंसे चार नीरस आहारोंसे होती है। अपनी शक्तिके अनुसार आर्यिका चार उपवास करें अथवा चार नीरसाहार करें। चौथे दिन वह मौनसे सामायिक, प्रतिक्रमणादिक करें । तदनन्तर गरुके पास व्रतारोपण- व्रतग्रहण करना चाहिये। रजोधर्मसे प्रतिमास स्त्रियोंके व्रतोंका नाश होता है । अतः रजोदर्शनके समय वे शुद्ध नहीं होती ।। १५४-१५६ ॥ ( स्नानके तीन प्रकार । )- स्नानके व्रतस्नान, मंत्रस्नान और जलस्नान ऐसे तीन भेद हैं । जलसे स्नान गृहस्थ करते हैं और मुनियोंका स्नान व्रतोंसे और मंत्रोंसे होता हैं॥१५७॥ ( श्रावकोंके प्रायश्चित्तोंका वर्णन । )- गुणोंकी अपेक्षासे श्रावकोंके ग्यारह प्रकार है । आगमके अनुसार उनका प्रायश्चित्त संक्षेपसे मैं कहता हूं ।। १५८ ॥ पहला श्रावक दर्शन- सम्यग्दृष्टिधारक हैं । और वह मूलगुणोंको निरतिचार पालता है । उसको दर्शन-प्रतिमाधारक कहते हैं । दूसरी व्रतप्रतिमा है । इसका धारक श्रावक अणुव्रत, गुणव्रत, और शिक्षाव्रतोंका पालक होता है । तिसरी प्रतिमा धारण करनेवालेको सामयिकी कहते हैं। वह त्रिकाल सामायिक करता है । चौथी प्रतिमा प्रोषधोपवास है। इसका धारक श्रावक अष्टमी चतुर्दशीको धारणा और पारणासहित उपवास कर अपना इन दिनोंका समय सामायिक, धर्म ध्यान, धर्मोपदेशमें बिताता है । पांचवी प्रतिमाका श्रावक सचित्ताहार वयं करता है । कच्चे फल, शाक भाजी, आदि नहीं खाता। छठी प्रतिमाधारक श्रावक दिवाब्रह्मचारी १ आ. वचोऽप्यस्यां। २ आ. पापमपि। ३ न स्यान्नामापि संग्राह्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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