Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 284
________________ -१०. १२८) सिद्धान्तसारः (२५७ षण्मासान्यावदेतत्स्याद्दण्डः पाषण्डघातिनः । तद्भक्तानां त्रयोमासान् षष्ठयोगाद्विशोधनम् ॥१२३ साधार्योऽसौ विघाते स्यात्तधोनीनां तथा क्रमात् । कथ्यते मुनिभिर्मान्यैः शोधनं शुद्धिहेतवे ॥१२४ तृणभक्षविघाते स्युरुपवासाश्चतुर्दश । सिंहव्यायादिजीवानां घाततोऽपि त्रयोदश ॥ १२५ मयूरकुक्कुटादीनां द्वादश स्युविघाततः । एकादशोपवासाश्च सर्पजातिवधे सति ॥ १२६ शुद्धिर्दशोपवासैः स्यात्सरटादिवधे सति । मत्स्यकच्छपपूर्वाणां विघातान्नव भिस्तकः ॥ १२७ नीचःपैशुन्ययुक्तो यो ह्यनृतं परिभाषते । प्रत्यक्ष वा परोक्षं वा गणात्तस्य बहिः कृतिः ॥ १२८ (पाषंडिघात और तद्भक्तघातका प्रायश्चित्त। )- पाषण्डी अर्थात् भस्मधारी भिक्षु, कापालिक, परिव्राजक आदि अन्य धर्मीय साधुओंका घात करनेपर छह महिनोंतक दो दो उपवास पूर्वक पारणा करनी चाहिये। और उनके भक्तोंका-माहेश्वर आदिकोंका घात करनेपर तीन महिनोंतक दो दो उपवास पूर्व पारणा करें तथा जो स्त्रीभक्त हैं, उनका घात होनेसे डेढ मासतक दो दो उपवासोंके अनंतर पारणा करनी चाहिये ॥ १२३ ॥ ( आर्यिकाघातका प्रायश्चित्त।)- जैन मुनिओंका घात करनेसे जो प्रायश्चित्तका क्रम कहा है वह प्रायश्चित्त-क्रम आयिकाओंका घात करने में समझना चाहिये। इस प्रकार मान्य मुनियोंने शुद्धिके लिये शोधन-प्रायश्त्ति कहा है ॥ १२४॥ ( तृणभक्षक और मांसभक्षक पशुओंके घातका प्रायश्चित्त।)- तृणभक्षकपशु-हरिण, खरगोश, बकरा आदि प्राणियोंका घात करनेसे चौदह उपवासोंका प्रायश्चित्त है। अर्थात एक उपवास एक पारणा, एक उपवास एक पारणा इस क्रमसे चौदह उपवासोंका प्रायश्चित्त करना चाहिये। सिंह, व्याघ्र, आदि हिंस्र प्राणियोंका घात करनेसे तेरह उपवास पारणापूर्वक करने चाहिये अर्थात् एकान्तरोपवास पूर्वक तेरह उपवास और तेरह पारणा करना चाहिये ॥ १२५ ॥ (मयूरादिके घातका प्रायश्चित्त । )- मोर, मुर्गा, कबूतर, तीतर आदि पक्षियोंके घातसे बारह एकान्तरोपवास करने चाहिये । और सर्पके जातिका वध किया जानेसे ग्यारह उपवास एकान्तरपूर्वक करने चाहिये ।। १२६ ।। गिरगिट आदिकोंका नाश करनेसे एकान्तरपूर्वक दस उपवास करना चाहिये । एक उपवास, एक पारणा ऐसा क्रम दसवे उपवास तक करना चाहिये। तथा मछली, कछुवा, मगर आदि जलचर प्राणियोंके घातसे नौ उपवास और नौ पारणायें करनी चाहिये। इस प्रकार अहिंसावतका प्रायश्चित्त निरूपण किया है ।। १२७ ॥ ( असत्यभाषणका प्रायश्चित्त । )- जो साधु नीच दुष्टतायुक्त-निंदायुक्त असत्य बोलता है वह चाहे प्रत्यक्ष बोले किंवा परोक्षतासे बोले उसको गणसे बाहर करना चाहिये । १ आ. विशोधकम। २ आ. सार्थो मासो। ३ आ. नीचैः पैशुन्ययुक्तो यो। स ( सोलापुर ) प्रथमं नीचपैशुन्यं ह्यन्तं परिभाषते। s. S. 33. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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