Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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( - १०.९९
आचार्यगणमुत्सृज्य भ्राम्यत्येको महीतले । यावत्क्रियामजानानस्तावद्दीक्षास्य छिद्यते ॥ ९९ पार्श्वस्थ गणसंयुक्तः षण्मासान्यो व्यवस्थितः । तपस्तस्य भवेदूर्ध्वं छेद एव निगद्यते ॥ १०० न सन्त्यत्र पुनस्तस्य व्रतारोपणमीर्यते । श्रामण्योक्ता गुणा यस्य नश्यन्ति कास्यतोऽथवा ॥ १०१ आर्यिका संयतानां च गृहस्थानामहेतुकम् । अभ्युत्थानं करोत्यस्य प्रायश्चित्तं भवेत्पुनः ॥ १०२ जिनसूत्रापरिज्ञानादुत्सूत्रं वर्णयेत्पुनः । स्वच्छन्दस्य भवेत्तस्य मूलदण्डो विधानतः ॥ १०३ अत एव महात्मानो जिनसिद्धान्तवेदिनः । उपवासे परायत्तास्तपः कुर्वन्त्यहनिशम् ॥ १०४ तत्पार्श्वस्थावसन्नैककुशीलमृगचारिषु । ये गृहीतव्रतास्तेषां दातव्यं मूलमेव च ॥ १०५
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सिद्धान्तसारः
आचार्योंका गण छोडकर वह दोषी मुनि अकेला पृथ्वीपर विहार करता है, जबतक वह क्रिया नहीं जानता, नहीं करता तबतक उसकी दीक्षा छेदी जाती है ॥ ९९ ॥
पार्श्वस्थगण - भ्रष्ट मुनिसमूह के साथ जो मुनि छह महिनोंतक रहते हैं उनकी दीक्षा छेदी जाती है और यह छेदनामक प्रायश्चित्त है ॥ १०० ॥ अथवा जिसके कुछभी गुण नहीं हैं उसको
जिसके मुनिपदयोग्य सब गुण नष्ट हुए हैं
पुनः व्रतारोपण नहीं दिया जाता ।। १०१ ॥
आर्यिका असंयमी तथा गृहस्थ आनेपर बिनाहेतु जो अभ्युत्थान करता है उस आचार्यको प्रायश्चित्त कहा है ॥ १०२ ॥
जिनसूत्रका ज्ञान न होनेसे जो उत्सूत्र प्रतिपादन करता है, उस स्वच्छन्द मुनिको शास्त्रोक्त विधिसे मूलदण्ड देना चाहिये । अर्थात् उसको पुनः दीक्षा देनी चाहिये ।। १०३ ।। इसलिये जो सत्पुरुष हैं और जैन - सिद्धान्तके वेत्ता होते हैं वे उपवास में अधीन होकर हमेशा तपश्चरण करते हैं ।। १०४ ॥
जो पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और मृगचारीके पास दीक्षा ग्रहण करते हैं उनको मूल - प्रायश्चित्तही देना चाहिये अर्थात् पुनः दीक्षा देनी चाहिये ।। १०५ ॥
पार्श्वस्थ - जो वसतिकामें आसक्त रहता है, उपकरणोंसे उपजीविका करता है और श्रमणोंके - मुनियोंके पास रहता है ।
अवसन्न- जो चारित्र पालनमें आलस्य युक्त होता है । जिनवचनोंको नहीं जानता है, जिसने चारित्रभार छोड दिया है, ज्ञानसे व चारित्रसे जो भ्रष्ट है और क्रियाओंमें आलस्ययुक्त
है ।
कुशील - क्रोधादिकोंसे कलुषित व्रत गुण और शीलोंसे रहित संघका अपमान करनेवाला ।
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मृगचारी - स्वच्छन्दी, गुरुकुलको छोडकर विहार करनेवाला, और जिनवचनको दूषित करनेवाला होता है ॥ १०५ ॥
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