Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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२२८)
सिद्धान्तसारः
(९. १५७
अनुत्सिक्तत्वं' स्वल्पक्रुत्स्वदारपरितुष्टता । आत्रवोऽभाणि सर्वज्ञः पुंवेद्यस्य तु कर्मणः ॥ १५७ प्रचुरककषायत्वं परगुह्यप्रकाशनम् । इन्द्रियोद्रेकिता नित्यं परस्त्रीसेवने रतिः ॥ १५८ इत्येवमादिकं सर्व आस्रवद्वारमायतम् । नपुंसकादिवेदस्य गृणन्ति गरिमान्विताः ॥ १५९ चारित्रमोहनीयस्य कर्मणः कथितो मया। आस्त्रवः साम्प्रतं तावदायुषो निगदामि तम् ॥१६० हिंसादिक्रूरकार्याणामजस्रं परिवर्तनम् । सर्वस्वहरणं निन्द्यविषयस्यातिगृद्धिता ॥ १६१ कृष्णलेश्याभिसंजातरौद्रध्यानकतानता। नारकस्यायषो हेतर्मरणाद्वालबालतः ॥ १६२ प्रपञ्चबहला वत्तिमिथ्याधर्मोपदेशना। अप्रियस्यातिसंधानं नीलकापोतलेश्यता॥ १६३ आर्तध्यानभवो मृत्युरित्यादिकमनेकधा । कथितं संयतैरेतत्तिर्यग्योनस्य कारणम् ॥ १६४
पुंवेदवेदनीयके कारण- गर्व न धारण करना, अल्प क्रोध, स्वस्त्रीमें संतोष, ये पुंवेदकर्मके कारण हैं ऐसा जिनेश्वरोंने कहा है ॥ १५७ ॥
नपुंसकवेदनीयके कारण- प्रचुर कषाय होना, दूसरोंके गुह्य प्रगट करना, इंद्रियोद्रेक धारण करना- अत्यंत कामाकुल होना, हमेशा परस्त्री सेवनमें आसक्त होना इत्यादिक सर्व नपुंसकवेदके आस्रवके कारण हैं, ऐसा गरिमाको- माहात्म्यको धारण करनेवाले आचार्य कहते हैं ॥ १५८-१५९॥
यहांतक मैंने चारित्रमोहनीयके आस्रव कारण कहे हैं । अब आयुकर्मके आस्रव कारण मैं कहता हूं ॥ १६० ॥
( नरकायुके आस्रवकारण )- हिंसादिक क्रूरकार्योंमें सतत तत्पर रहना, लोगोंका संपूर्ण धन, स्त्री आदिक अत्यंत प्रिय वस्तुओंका हरण करना, जो कि अत्यंत निंद्य कार्य माना है, पंचेंद्रियोंके स्त्री आदिक विषयोंमें अत्यंत अभिलाषा- लंपटता रखना, कृष्णलेश्यासे उत्पन्न हुए रौद्रध्यानमें लवलीन होना, और बालमरणसे मरना । ये सब कारण नरकायुआस्रवके होते हैं । ऐसीही क्रिया नित्य करना जिसमें प्राणियोंको पीडा होती है और धनधान्यादि परिग्रहोंमें अत्यासक्ति होना ये नरकायुके आस्रवके कारण हैं ।। १६१-१६२ ॥
( तिर्यगायुके आस्रवके कारण।)- अतिशय धोखा देनेवाला स्वभाव होना, मिथ्यात्व युक्त धर्मोपदेश देना, अप्रिय लोगोंको फंसाना, नीललेश्या और कापोतलेश्यायुक्त स्वभाव होना, आर्तध्यानसे मरण होना इत्यादिक तिर्यंचायुके कारण हैं, ऐसा संयतोंने- जैन मुनियोंने कहा है। चारित्रमोहकर्मके उदयसे जो आत्मामें कुटिलभाव- कपटभाव उत्पन्न होता है उसे माया कहते हैं । इस मायासे अतिशय धोखा देना आदि स्वभाव जीवमें उत्पन्न होते हैं। ऐसे परिणामोंसे तिर्यंचायुका आस्रव जीवको होता है ॥ १६३-१६४ ।।
१ आ. स्तोकक्रोधानसिक्तत्वम् २ आ. देशिता ३ आ. प्रियत्वस्या ४ आ. तैर्यग्योनस्य सर्वज्ञैरायुष: कारणं मतम्
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