Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 268
________________ -१०. ११) सिद्धान्तसार: (२४१ मिक्षार्थिनो मुनेरत्र तद्गृहैः ' परिसंख्यया । वर्तनं वृत्तिसंख्यानं कथयन्ति कथाविदः ॥ ८ अथाशाया निवृत्त्यर्थं एकागारादिचिन्तनम् । यत्रैव कुरुते साधुर्वृत्तिसंख्या नु सा मता ॥ ९ तोषसंयमसिद्धयर्थं शमस्वाध्यायकारकम् ' । निद्रादोषापहं साधोरवमोदर्यमीर्यते ॥ १० विषयेभ्यो निवृत्त्याशु संयमस्तिमितात्मनः । अक्षप्रशमनार्थं च सूपवासो निगद्यते " ॥ ११ ४ अवमोदर्य, चतुर्विध उपवास, रसत्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ऐसा छह प्रकारका बाह्य तप कहा है । यह कर्मका क्षय करनेवाला है ऐसा जिनेश्वर कहते हैं ॥ ५-७ ॥ ( वृत्तिपरिसंख्यान तपकी निरुक्ति । ) - भिक्षा ग्रहण करनेकी इच्छा रखनेवाले मुनि दाताओंके घरोंका प्रमाण कर उनमें से किसी एक घर में आहार लेते हैं। उनके इस तपका नाम वृत्तिपरिसंख्यान है ऐसा तपःकथाको जाननेवाले मुनि कहते हैं ॥ ८ ॥ स्पष्टीकरण - एक घर, सात घर, एक गली, आधा गाम आदिमें आहार मिलेगा तो मैं ग्रहण करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करके आहार लेना वृत्तिपरिसंख्यान तप है । यह गृहविषयक वृत्तिपरिसंख्यान हुआ । इसी प्रकार दातृविषयक, पात्रविषयक आदि परिसंख्यानभी इसी तपमें समाविष्ट होते हैं । अमुक दाताने आहार दिया तो मैं ग्रहण करूंगा, अमुक पात्र में - सोने के पात्र में, चांदी के पात्रमें इत्यादि पात्र में आहार मिलेगा तो ग्रहण करूंगा इत्यादि प्रतिज्ञाकोसंकल्पको वृत्तिपरिसंख्यान कहते हैं ॥ ८ ॥ ( अनगारधर्मामृत अ. ७ वा श्लो. २६ ) आशाका त्याग करनेके लिये ऊपरके श्लोकमें जैसा कहा है, उसके अनुसार जो साधु एक घर सात घर आदिका संकल्प करता है, उसका यह वृत्तिसंख्यान नामक तप है ॥ ९ ॥ ( अवमोदर्य तप करनेके हेतु ) - जिसमें थोडा अन्न खानेसे पेट पूर्ण नहीं भरता, खाली रहता है ऐसे तपको अवमोदर्य तप कहते हैं । यह तप संतोषकी प्राप्तिके लिये संयमसिद्धिके लिये किया जाता है । यह तप वातादिक दोषोंका प्रशमन करके स्वाध्यायकी सिद्धि करता है, निद्रा दोषभी इस तपसे दूर होते हैं साधुके इस तपको अवमोदर्य कहते हैं ॥ १० ॥ स्पष्टीकरण - पुरुषका आहार बत्तीस घास प्रमाण हैं और स्त्रियोंका आहार अट्ठाईस घास प्रमाण होता है । इस आहारमें से इकतीस तीस आदिको लेकर एक घासतक जो आहार लेना वह सब अवमोदर्य तप है । ( अनगारधर्मामृत अ. ७ वा श्लो. २२ वा ) ( अनशन तप ) - पंचेद्रियोंके विषयोंसे निवृत्त होकर संयमकी स्थिरताके लिये और इंद्रियोंका प्रशम होनेके लिये उपवास तप कहा है ।। ११ ।। १ आ. तद्वृत्तेः २ आ. पाका S. S. 31. Jain Education International ३ आ. सम ४ आ. अक्षाण्युपवसन्त्यस्यो ५ आ. स For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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