Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-१०. ४०)
सिद्धान्तसारः
(२४५
निमित्तादनिमित्ताच्च दोषस्याचरणं द्विधा । अष्टौ भङ्गाः पुनः सन्ति द्वयोरपि विभाविताः॥३४ सहेतुकोऽपरस्तस्य सकृत्कारी तथेतरः । सानुवीचिविपक्षोऽस्य सप्रयत्नोऽप्रयत्नकः ॥ ३५ ।। एवमष्टौ विकल्पाः स्यु सनिमित्तानिमित्तयोः । सर्वे संमिलिताः सन्ति षोडशैते जिनागमे ॥३६ अन्येऽपि बहवो भङ्गाः सन्त्यत्रागमणिताः । ज्ञात्वा तांस्तारतम्येन छेदं दद्याद्यतीश्वरः ॥ ३७ परिहर्तुमशक्यत्वाच्छोध्यते' यत्पुनः पुनः । परिस्पन्दादितदोषात्कायोत्सर्गेण शुध्यति ॥ ३८ अन्नपानादिहेतूत्थं यच्च दूषणमल्पकम् । तस्मादपि विशुद्धयन्ति कायोत्सर्गान्मुनीश्वराः ॥ ३९ अप्रतिलेखितस्पर्श तथा कंडयनादिष । मलोत्सर्गादिके वापि कायोत्सर्गेण शुध्यति ॥ ४०
लेनेवालेका निर्मल परिणाम, भुक्ति-आहार और दोषी पुरुष-इन बातोंको विचारमें जो लेते हैं वे योग्य और आगममान्य होते हैं । अन्यथा अज्ञानसे प्रायश्चित्त देना योग्य नहीं है ।। ३३ ॥
जो दोष मुनियोंके द्वारा किया जाता है वह निमित्तसे या अनिमित्तसे होता है इस प्रकारसे दोषके दो भेद होते हैं। निमित्तजात-दोष और अनिमित्तजात-दोष। इन दोनोंकोभी पुनः आठ आठ भेद होते हैं ऐसा आचार्योने प्रगट किया है ॥ ३४ ॥
सहेतुक- हेतुपूर्वक दोष करना, अहेतुक-हेतुके बिनाही दोष करना, एकबार दोष करना, अनेकबार दोष करना, सानुवीचि-विचार करके दोष करना, अविचारसे करना, प्रयत्न पूर्वक दोष करना और अप्रयत्नपूर्वक दोष करना, इस प्रकार निमित्त और अनिमित्तके आठ आठ दोष होते हैं। सब मिलकर सोलह प्रकार जिनागममें कहे हैं। अन्यभी बहुतसे भंग अर्थात् दोषोंके प्रकार हो सकते हैं जिनको आगममें वर्जित माना है। उन सब दोषोंको जानकर यतीश्वर अर्थात् आचार-तारतम्यसे प्रायश्चित्त देवें॥ ३५-३७ ।।।
कायोत्सर्गसे निवृत्त होनेवाले दोष । कोई दोष ऐसे होते हैं, कि उनका परिहार-त्याग करना अशक्य होता है। इसलिये पुनः पुनः उनका प्रायश्चित्त लेकर उन दोषोंसे शुद्ध होना पडता है। जैसे गमनागमन करना पडता है और उसमें असावधानतासे दोष शुद्ध होते हैं। ऐसे दोषोंका परिहार कार्योत्सर्गसे होता है ।। ३८ ॥
__अन्नपानादि कारणोंसे जो अल्पसा दोष उत्पन्न होता है उससे भी मुनीश्वर कार्योत्सर्ग करके शुद्ध होते हैं। जो वस्तु पिच्छिकासे नहीं स्वच्छ की है, उसको स्पर्श होनेपर कार्योत्सर्गसे शुद्धि होती है। तथा शरीरके खुजानेसे जो दोष होता है वह कार्योत्सर्गसे होता है। मलोत्सर्गादिकमें शौचको जाना, मूत्र करके आना आदिक दोषनिराकरणके लिये कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है ।। ३९-४० ।।
स्पष्टीकरण- अन्न पानादिकके दोषमें पच्चीस उच्छ्वासतक कायोत्सर्ग करना चाहिये।
१ आ. भां. सेव्यते २ यतीश्वराः ३ कायोत्सर्गे विशोधनम्
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