Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
(१०. ७२
शय्यागारादिकस्यापि सधर्मणां कृते कृतौ । कर्तुत्सिल्यतो यत्तन्नास्ति दोषो मनागपि ॥ ७२ वन्दारुः शुद्ध एवासौ पार्श्वस्थगणिनो गणी । संघमेलापकेऽन्यत्र मासिकं दण्मडश्नुते ॥ ७३ राजादिराजलोकानां स्नेहमुत्पादयन्नपि । नैव दुष्टो गणी कश्चित्सङ्घपालनहेतुतः ॥ ७४ अभ्युत्थानादिकं कुर्वन्गृहस्थेष्वन्यलिङ्गिषु । दीक्षादिकारणाच्छुद्धो मासिकं चान्यथा भजेत्॥७५ राजासन्नासनस्थोऽपि धर्मादेः कारणाश्रयात् । अभ्युत्थानेऽथवा तस्य सूरिसूर्यो न दुष्यति ॥७६ भूपत्याद्याः समागत्य पूजयन्ति यतीश्वरम् । पूजितस्य च तैर्ग मासिकं तस्य जायते ॥ ७७ निषद्यासेवन मिथ्याकारेच्छा- सुनिमन्त्रणं । यो न कुर्वन्नरस्तस्य पुरुमण्डलमीरितम् ॥७८
( सार्मिकोंको शय्या और वसतिका देने में प्रायश्चित्तका अभाव।)- तृणकी शय्या, फलककी शय्या तथा वसतिका साधर्मिकोंके लिये कोई दें अथवा करें तो वात्सल्यभाव होनेसे शय्यादिके देनेवालेको प्रायश्चित्त दोष हैही नहीं ।। ७२ ॥
___ संघमें सब मुनियोंका समूह होनेसे पार्श्वस्थ गणीको यदि आचार्य वंदन करें तो वह शुद्धही है परंतु जब अकेले पार्श्वस्थ आचार्यको वंदन करें तो वह मासिक प्रायश्चित्तको योग्य है ॥ ७३ ॥
( संघपालनार्थ राजस्नेह करनेवाले आचार्य निर्दोष है । )- राजादिक और उनके सेवकोंका स्नेह रखनेवाले आचार्य दोषी नहीं हैं, क्योंकि, वे संघका पालन राजादिकोंके साथ स्नेह रखनेसे होगा ऐसा उद्देश मनमें रखकर वैसा स्नेह पालन करते हैं ॥ ७४ ।।
कोई गृहस्थ दीक्षा आदि कार्यके लिये आया है, तो उसका अभ्युत्थानादिक यदि करें तो वह दोषी नहीं है और अन्यधर्मीय साधु दीक्षा ग्रहणके लिये आया हो तो उसकाभी आदर करनेमें आचार्य दोषी नहीं है। यदि इन कारणोंके बिना आचार्य आदर करें उठकर खडे होना आदि विनय करें तो वह मासिक प्रायश्चित्तके योग्य है । ७५ ॥
राजा आसनपर बैठा है और धर्मादिक कारणसे आचार्य राजाकी सभामें आयें और राजा आदरके लिये आसनसे ऊठनेपर अथवा न ऊठनेपर आचार्यको दोष नहीं है । राजा, मंत्री आदिक आकर आचार्यकी पूजा करनेसे मेरी पूजा राजादिक करते हैं ऐसा गर्व यदि आचार्य करें तो उनको मासिक प्रायश्चित्त है ।। ७६-७७ ।।
जो साधु निषद्यासेवन नहीं करता है अर्थात् जहां जैन मुनि समाधिमरण करते हैं उस स्थानकी वंदना नहीं करता हैं, जो मिथ्याकार, इच्छाकार और निमंत्रण नहीं करता है- नहीं बुलाता है उसको पुरुमंडल नामक प्रायश्चित्त होता है ।। ७८ ॥
१ आ. छेद
२ आ. त्रयं
३ आ. नृपाद्या:
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