Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 259
________________ २३२) सिद्धान्तसारः (९. १८१ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादाश्च तथा पुनः । कषायाश्च ततो' योगा गदिता बन्धहेतवः ॥ १८१ मिथ्यात्वं पूर्वमाख्यातं क्रियायां बन्धकारणम् । हिंसादिषु प्रवृत्तिर्या साभाष्यविरतिर्बुधः ॥१८२ कुशलेष्वनादरो यस्तु प्रमादः स निगद्यते । कषायाः पूर्वमुक्ताः स्युः सर्वे बन्धस्य कारणम् ॥१८३ मनोवाक्कायकर्मादियोगाश्चापि निवेदिताः । आस्रवे ते च बन्धस्य हेतुभूता भवन्त्यमी ॥१८४ यद्यप्युक्तं हि मिथ्यात्वं पूर्व किञ्चित्तथापि तत् । बन्धप्रस्तावतश्चात्र निगदामि विशेषतः॥१८५ मिथ्यात्वं द्विविधं प्रोक्तं स्वभावादुपदेशतः। मिथ्याकर्मोदयाज्जातं स्वाभाविकमुदीरितम् ॥१८६ परोपदेशतो निन्धं तत्त्वश्रद्धानलक्षणम् । उपदेशजमाख्यातं मिथ्यात्वं तच्चतुविधम् ॥१८७ क्रियावादाः क्रियावादे तथा चाज्ञानिकं पुनः । वैनयिकं ततो दुष्टं चतुर्थ कथयन्ति तत् ॥१८८ अशीतिशतभेदं तत्क्रियामिथ्यात्वमुच्यते । अक्रियागतभेदः स्युरशीतिश्चतुरुत्तरा ॥१८९ तथापि जो प्रदोषादि-कार्योंसे ज्ञानावरणादि सर्व कर्मप्रकृतियोंका प्रदेशबंध नियम नहीं हैं तोभी वे प्रदोषादिक ज्ञानावरणादिके अनुभाग बंधके लिये अवश्य कारण होते हैं ।। १८० ॥ ( बंधके कारण ) - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, पुनः कषाय और योग के बंधके कारण कहे गये हैं। मिथ्यात्व जोकि बंधका कारण है, उसका वर्णन क्रियाओंमें किया हैं। हिंसादिकोंमें जो प्रवृत्ति होती है उसको विद्वानोंने अविरति कहा है। तथा कुशल कृत्योंमें-पुण्यकारक कार्योंमें ध्यान-स्वाध्यायादिकोंमें अनादर रहना प्रमाद है। कषायोंका वर्णन पूर्वमें किया गया है। सब कषाय बंधके कारण है। मन वचन और शरीर इनकी प्रवृत्तियांही योग हैं इनकाभी वर्णन पूर्वमें आस्रवके प्रकरणमें आया हैं। ये मिथ्यादर्शनादिक सब कारण आस्रव और बंध में कारणभूत हैं ॥ १८१-१८४ ॥ ( मिथ्यात्वके दो भेद। )- यद्यपि मिथ्यात्वका पूर्वमें थोडासा वर्णन किया है तोभी अब बंधप्रकरणमें इसका विशेषतः मैं कथन करता हूं ॥ १८५ ॥ मिथ्यात्वकर्मके स्वभावसे और उपदेशसे दो भेद कहे हैं। मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जो निन्द्यतत्त्वोंका श्रद्धान होता है वह स्वाभाविक मिथ्यात्व है और उपदेशसे-कुगुरुके द्वारा किये गये कुतत्त्वोंके उपदेशसे जो निंद्यतत्त्वोंके प्रति श्रद्धान उत्पन्न होता है, वह उपदेशज मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके आचार्योंने चार भेद कहे हैं। क्रियावाद, अक्रियावाद, आज्ञानिक और वैनयिक ऐसे मिथ्यात्वके चार भेद हैं ॥ १८६-१८८॥ ( चार मिथ्यात्वोंके उत्तर भेद।) – क्रियामिथ्यात्वके एकसौ अस्सी भेद हैं। अक्रियामिथ्यात्वके चौरासी भेद हैं। आज्ञानिक मिथ्यात्वके सदुसठ भेद हैं और वैनयिकके निश्चयसे बत्तीस भेद हैं। पुनः सबके भेद मिलकर तीनसौ तिरेसठ भेद होते हैं। ये सब भेद जीवोंके बंधके कारण हैं ॥ १८९ ।। १ आ. तथा २ आ. तक्रिया ३ आ. औपदेशिक ४ आ. क्रियावदक्रियावच्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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