Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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२३०)
सिद्धान्तसारः
(९. १७०
नाम्नोऽशुभस्य विज्ञेयमित्येतत्कारणं पुनः । विपरीतं शुभस्याहुरागमाम्भोधिमध्यगाः ॥ १७० सद्दर्शनविशुद्धिश्च विनीतत्वमनिन्दनम् । व्रतेषु सर्वथा शोलेष्वतीचारविवर्जनम् ॥ १७१ अभीक्ष्णज्ञानसंवेगौ शक्तितस्त्यागतापसी' । तथा साधुसमाधिश्च वैयावृत्त्यं सुनिर्मलम् ॥१७२ अहंदाचार्यसद्भक्तिभक्तिर्बहुश्रुते तथा। जिनागममहाभक्तिः षडावश्यककारिता ॥ १७३ मार्गप्रभावना जैनवचोवत्सलता परा । इति तीर्थकरत्वस्य कारणानि भवन्ति च ॥ १७४ व्यस्तानि च समस्तानि चिन्त्यान्येतस्य कारणम् । तारतम्येन जायन्ते विहितानि महात्मनाम् ।
ऐसा मिथ्या उपदेश देकर उसे मिथ्यामार्गमें लगाना विसंवादन है । मनकी अस्थिरता होनेसे श्रद्धानमें और चारित्रमें दृढता उत्पन्न नहीं होना, व्रतधारणकी प्रतिज्ञामें वारंवार परिवर्तन होना, प्रतिज्ञाको छोड बैठना इत्यादि कार्योंसे अशुभनाम कर्मका आस्रव होता है । अशुभनाम कर्मके आस्रव जिनसे आते हैं ऐसे जो योगवक्रतादिक कारण हैं उनसे विपरीत अर्थात् शरीर, मन वचनोंकी सरलता होना, दुसरोंको जो मिथ्यामार्गमें लगे हुए है उन्हें सन्मार्गमें- रत्नत्रयमार्गमें लगाना, सम्यग्दर्शनके साथ स्थिरचित्तता होना, प्रतारणा-स्वभावका सर्वथा अभाव होना इत्यादिक अच्छे कारणोंसे शुभनाम- कर्मास्रव जीवमें आते हैं ॥ १६९-१७० ॥
( तीर्थकरत्व नामास्रवके कारण। )- १ सम्यग्दर्शनमें विशुद्धि- जिनेश्वरने कहे हुए निष्परिग्रहरूप मोक्षमार्गमें जो रूचि होना वह दर्शन- विशुद्धि है। २ विनीतत्व-मोक्षके साधनरूप सम्यग्ज्ञानादिकोंमें तथा सम्यग्ज्ञानादिकोंकी प्राप्ति जिनसे होती है ऐसे गुरु आदिकोंमें अपनी योग्यताके अनुसार प्रशंसनीय सत्कार- आदर करना । ३ व्रत और शीलमें अतिचाररहित प्रवृति करना अर्थात् अहिंसादिक व्रतोंमें तथा उनके पालनार्थ कोषादिकोंके त्यागरूप शीलोंमें निर्दोष प्रवृत्ति करना । ४ अभीक्ष्णज्ञानसंवेग-जीवादि पदार्थोंका तथा स्वस्वरूपका बोध करानेवाले सम्यग्ज्ञानमें हमेशा लवलीन होना तथा संसारदुःखोंसे सदा भयभीत रहना। ६-७ यथाशक्ति दान देना- आहारदान, अभयदान और ज्ञानदान देना । अपनी शक्ति न छिपाते हुए रत्नत्रयमार्गके अविरुद्ध तप करना। ८ साधुसमाधि- जैसे भांडागारमें आग लगनेपर उसको बुझाते हैं, वैसे साधु अनेक व्रत और शीलोंका समूहरूप होनेसे बहुत उपकारी हैं; इसलिये उनके तपमें कुछ कारणोंसे संकट उपस्थित होनेपर उनका तप संकट हटाकर निर्विघ्न करके उसकी धारणा करना।९ वैयावृत्त्यगुणिजनोंपर दुःख आनेपर निर्दोष उपायसे वह दूर करना । १०-११ अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्तिअर्हन्तके तथा आचार्यके गुणोंमें अनुराग रखना। १२ बहुश्रुतभक्ति- स्वपरमतोंके ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठीके गुणोंमें अनुरक्त रहना। १३ जिनागम- महाभक्ति-जिनप्रणीत सिद्धान्तागममें परिणाम विशुद्ध अनुराग होना । १४ आवश्यकापरिहाणि--सामायिक, प्रतिक्रमणादिक छह कर्तव्योंमें
१ आ. पारगा: २ आ. अनिन्दितम्
३ आ. सद्वते
४ आ. बहुश्रुतवतस्तथा।
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