Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-९. १५६)
सिद्धान्तसारः
(२२७
इत्याद्यनेकधाभाणि जिनागमविशारदः । कषायवेदनीयस्य ह्यास्रवद्वारमायतम् ॥ १४८ समानर्मिणो' हास्यं दीनानामतिहासता । बहुधा विप्रलापश्च सोपहासकशीलता ॥ १४९ इत्याद्यनेकदुर्वृत्तं कथितं पूर्वसूरिभिः । हास्यकवेदनीयस्य कारणं दुःखधारणम् ॥ १५० क्रीडकपरता नित्यं व्रतशोलारुचिस्तथा । रत्यादिवेदनीयस्य कारणं कथितं जिनैः ॥ १५१ परस्यारतिकारित्वं तत्पापिजनसङ्गमः । अरतेवेदनीयस्य कारणत्वेन निश्चितम् ॥ १५२ स्वशोकोत्पादनं तावत्परशोकाभिनन्दनम् । शोकादिवेदनीयस्य ह्यास्रवद्वारमीरितम् ॥ १५३ आत्मनो भयभीरुत्वं परस्य भयकारिता । भयादिवेदनीयस्याप्यास्रवः श्रमणैर्मतः ॥ १५४ कालकौशलमाश्रित्य क्रियाचारविवस्तु या । जुगुप्सा सा जुगुप्सादिवेदनीयस्य कारणम् ॥ १५५ अलीकस्याभिधानादिपरत्वं वृद्धरागता । आस्रवोऽस्त्यादिवेदस्य कर्मणः कथितो जिनः ॥ १५६
भेष धारण करना, व्रतियोंके व्रतोंमें दूषण लगाना, संक्लेश परिणाम उत्पन्न करनेवाला लिंगग्रहण करना इत्यादि अनेक प्रकारसे कषायवेदनीयका दीर्घ आस्रवद्वार जिनागममें निपुण विद्वानोंने कहा है ॥ १४७-१४८ ॥
___ साधर्मिकोंकी हसी करना, दीनोंका अतिशय उपहास करना, अनेक प्रकारोंसे विरुद्ध भाषण करना, हमेशा विनोद हसी करनेका स्वभाव होना, इत्यादिक अनेक दुर्वृत्त-दुराचारोंमें प्रवृत्त होना ये हास्यवेदनीयके दुःख देनेवाले कारण हैं ऐसा पूर्वाचार्योंने कहा है ॥१४९-१५०॥
रतिवेदनीयके कारण- हमेशा क्रिडा करनेमें तत्पर रहना, व्रत और शीलमें अरुचि उत्पन्न होना, ये रतिवेदनीय कर्मके आस्रवके दुःखदायक कारण हैं । १५१ ॥
. अरतिवेदनीयके कारण- दूसरेमें अरति- अप्रेम उत्पन्न करना, पाप करनेवाले लोगोंके साथ सहवास रखना, ये अरतिवेदनीयके निश्चित कारण हैं ॥ १५२ ।।
शोकवेदनीयके कारण- अपने में शोक उत्पन्न करना, कोई शोकयुक्त हुआ हैं ऐसा देखकर आनंदित होना ये शोकवेदनीयके आस्रवद्वार कहे हैं ।। १५३ ॥
भयवेदनीयके कारण-- स्वयं भययुक्त होना, दूसरोंको भयभीत करना, ये भयवेदनीयके आस्रव हैं ऐसा मुनियोंने कहा है ॥ १५४ ॥
जुगुप्सावेदनीयके कारण-- काल और कुशलताका आश्रय लेकर जो कुशल आचारोंका पालन कर रहे हैं, उनकी ग्लानि करना जुगुप्सावेदनीयके कारण हैं ॥ १५५ ।।
स्त्रीवेदके कारण-- अलीक-असत्य भाषण करनेकी आदत होना, दूसरोंको फंसाना, दूसरोंके दोष देखने में तत्पर रहना, तीव्र रागभाव उत्पन्न होना आदिक स्त्रीवेदके कारण हैं ऐसा जिनेश्वरने कहा है ।। १५६ ।।
१ आ. धर्मणो २ आ. स्त्रीवेद्यकर्मणो हेतुमास्रवं
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