Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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( ९. ३३
अभाषात्मा तिरश्चां स्याच्छ्री जिनेन्द्रध्वनावपि । स च प्रायोगिकोऽन्यश्च वैत्रसिकस्तथा परः ॥ ३३ वीणावंशादिसंभूतः प्रायोगिक इतीरितः । वैश्रसिकश्च मेघादिप्रभवोऽनेकधा पुनः ॥ ३४ पुद्गलोत्पन्न एवायं पौद्गलिकोऽपि कथ्यते । उपचारेण जीवस्य तद्वयापारप्रयोगतः ॥ ३५ ततो न व्यभिचारोऽस्ति मनोरूपित्वसाधने । शब्दज्ञानोपयोगित्वात्तस्य पौद्गलिकत्वतः ॥ ३६ ततः पृथ्वी पयश्च्छाया चतुरिन्द्रियगोचरम् । कर्माणि परमाणुश्च पर्यायाः पुद्गलस्य च ॥ ३७ दिशोऽप्याकाश एवायमादित्याद्युदयादिह । तस्य पङक्तिव्यवस्थासु' व्यवहारोपपत्तितः ॥ ३८ तस्मात्षडेव द्रव्याणि नाधिकानि जिनागमे । धर्माधर्मनभः कालास्तेषु नित्या मता जिनैः ॥ ३९
२१० )
क्योंकि, इनके सुननेसे व्यक्त और अव्यक्त दोनोंही अंशोंका बोध होता है । इसलिये सामान्य अंशके व्यक्त होने से असत्यभी नहीं कह सकते हैं, और विशेष अंशके व्यक्त न होनेसे सत्यभी नहीं कह सकते हैं ।। ३२ ॥
सिद्धान्तसार:
यह अनुभयभाषा तिर्यंचोंकी - द्वीन्द्रियादि - जीवोंकी है तथा श्रीजिनेश्वरकी जो दीव्यध्वनि है वह भी अनुभयभाषात्मक हैं। अभाषात्मक शब्दके प्रायोगिक और वैस्रसिक ऐसे दो भेद हैं । वीणावंशादि वाद्योंसे जो शब्द उत्पन्न होता है उसे प्रायोगिक कहते हैं । मेघादिकसे उत्पन्न होनेवाला शब्द वैस्रसिक है और उसके अनेक प्रकार हैं । यद्यपि शब्द पुद्गलसेही उत्पन्न होता है । इसलिये उसको पौद्गलिक कहते हैं तो भी उपचारसे शब्द जीवकाभी कहा जाता है; क्योंकि उसके प्रयत्न उसकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं । इतने विवेचनसे मनको रूपी सिद्ध करनेमें जो 'ज्ञानोपयोग हेतुत्व' नामक हेतु दिया है, शब्दको पौद्गलिकत्त्व साधनेमें वह उपयुक्त होनेसे अनैकान्तिक हेतु नहीं होता है । इतने विवेचनसे पृथ्वी, जल, छाया और नेत्रेन्द्रियको छोडकर शेष चार इंद्रियोंका विषय, कर्म और परमाणु ये सब पुद्गलके पर्याय हैं ऐसा सिद्ध हुआ है ।। ३३-३७ ।।
( दिशाका आकाश में अन्तर्भाव होता है । ) - दिशाओंका आकाश में अन्तर्भाव होता है; क्योंकि आकाशके प्रदेशोंमेंही सूर्य-चन्द्रादिकोंके उदयसे पूर्व पश्चिम इत्यादि व्यवहार होता है | अतः दिशा यह द्रव्य यह अलग नहीं है । उसका आकाशमेंही अन्तर्भाव होता है ॥ ३८ ॥
( जैनागम में छहही द्रव्य कहे हैं । ) - इसलिये जिनागममें छहही द्रव्य कहे हैं उनसे अधिक नहीं हैं। छहों द्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य जिनेष्वरोंने नित्य माने हैं । जो लक्षण जिस द्रव्यका आचार्यने कहा है, वह लक्षण इससे कभी नष्ट नहीं होता है। अर्थात् उस द्रव्यमें उसका लक्षण हमेशाही रहता है । अन्यथा वह द्रव्य कैसे पहचाना जायगा ? धर्मद्रव्यका गतिहेतुत्व लक्षण है, अधर्मद्रव्यका स्थितिहेतुत्व लक्षण है, आकाशका अवगाहनहेतुत्व लक्षण है और कालका वर्तना लक्षण है । ये लक्षण अपने अपने द्रव्योंको कभीभी नहीं
१ आ. पङ्क्तिप्रदेशेषु
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