Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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- ९.५८)
(२१३
असंख्य विभागादिष्ववगाहक्रमादयम् । जीवानां तत्र जानन्ति यावल्लोकं विशारदाः ॥ ५० यद्येवमप्यसंख्येया विभागा जगतो मताः । आश्रयाः सर्वजीवानां कथं तेषामनन्तता ॥ ५१ नैष दोषो यतो जीवाः सूक्ष्मबादरभेदतः । भवन्ति द्विविधाः सर्वे विविधाकारधारिणः ॥ ५२ प्रतीघातदेहास्ते बादराः परितो मतः । सूक्ष्माश्च न तथा सूक्ष्मभावादेव भवन्त्यमी ॥ ५३ सूक्ष्मगोदजीकाव ढकप्रदेशके । सूक्ष्माः साधारणानन्तास्तिष्ठन्त्यन्योन्यमिश्रिताः ॥ ५४ न ते बादरवर्गाणां' व्याहन्यन्ते परस्परम् । अतः श्रीगुरुपादानां न दोषस्तन्निवेदने ॥ ५५ जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थित्युपकारकौ । धर्माधर्मौ तदाकाशमवगाहोपकारकम् ॥ ५६ जलवन्मत्स्य देहस्य गच्छतो गतिकारणम् । धर्मद्रव्यं हि जीवस्य पुद्गलस्य न तिष्ठतः ॥ ५७ अधर्मद्रव्यमप्येवं तिष्ठतः स्थितिकारणम् । जीवपुद्गलयोर्नापि गच्छतोस्तत्कदाचन ॥ ५८
सिद्धान्तसारः
( जीव लोकाकाशके कितने असंख्यातवे भाग में रहता है इस प्रश्नका निर्णय । ) - लोकाकाशके असंख्यात भाग करनेपर जो एक भाग, दो भाग, तीन भाग आदिक भागभी असंख्यात प्रदेशोंकेही होते हैं, क्योंकि, असंख्यातको छोटे असंख्यातसे भाजित करनेपर जो भागाकार आता हैं, वह असंख्यातरूपकाही आता है । जीवका अवगाह लोकाकाशके एक- दो-तीन आदि असंख्येय भागोंमें होता है । तथा लोकपूरण समुद्घातके समय जीवका अवगाह संपूर्ण लोक में होता है। एक जीवकी अपेक्षा से यह कथन किया । नाना जीवोंकी अपेक्षासे तो सर्व लोक अवगाह है ।। ५० ॥
यद्यपि लोकाकाशके असंख्येयविभाग माने गये हैं और वे जीवोंके आश्रयभूत हैं; किन्तु जीव तो अनंत हैं और आश्रय असंख्येयरूप हैं । इसलिये द्रव्यप्रमाणसे अनन्तानन्त सशरीर जीव उनमें कैसे अवगाह पा सकेंगे ? आचार्य इस शंकाका परिहार करते हैं - यह दोष नहीं है, क्योंकि, विविध आकार धारण करनेवाले जीव दो प्रकारके हैं अर्थात् सूक्ष्मजीव और बादरजीव । जिनका देह सप्रतिघात है, अर्थात् दूसरेसे जिनको बाधा पहुंचती हैं वे सप्रतिघात - बादरदेह हैं । सूक्ष्मजीव सशरीर होनेपरभी उनमें सूक्ष्मता होनेसे एक निगोदजीव जितने आकाश के प्रदेशोंमें रहता है उतनेमें साधारण शरीरवाले जीव अनन्तानन्त रहते हैं । परंतु वे अन्योन्यसे बाधित नहीं होते हैं और बादरोंसे भी बाधित नहीं होते हैं । इसलिये श्रीगुरुपादोंका उनका वर्णन करने में कुछभी दोष नहीं है ।। ५१-५५ ॥
( धर्म, अधर्म आकाशद्रव्योंके उपकारों का वर्णन । ) - जीव और पुद्गलोंके गति में उपकारक धर्मद्रव्य है । जीव और पुद्गलद्रव्य के स्थितिमें अधर्मद्रव्य उपकारक है और आकाशद्रव्य अवगाहमें उपकारक है । पानी जैसा चलनेवाले मत्स्यदेह के गति में कारण है उसी तरह धर्मद्रव्यभी गतिमें कारण है, परंतु स्थिर जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्यकी, गतिकेलिये कारण नहीं है । अधर्मद्रव्यभी जो पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य स्थिर है उनकी स्थितिमें कारण है । परंतु जो जीव और पुद्गल गतिमान् हो रहे हैं उनके स्थितिमें अधर्मद्रव्य कारण नहीं है ।। ५६-५७-५८ ।।
१ आ. बादरवर्गेण
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