Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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( १३९
-५. १६८ )
सर्व संसारिजीवस्यानादिसम्बन्ध इष्यते । कार्यकारणसन्तत्या ह्यनयोर्बीजवृक्षवत् ॥ १६२ विशेषापेक्षया सादिसम्बद्धे ते शरीरिणाम् । निगद्येते गतासात संगतैर्यतिनायकः ॥ १६३ इत्थं पञ्चविधेनामी शरीरेण शरीरिणः । व्यापत्कल्लोललोलेऽस्मिन्भ्रमन्ति भववारिधौ ॥ १६४ सर्वेऽपि नारका जीवास्तथा सम्मूच्छिनः पुनः । नपुंसका भवन्त्येव न देवाः पुण्यभागिनः ॥ १६५ शेषास्त्रिवेदा विज्ञेयास्तियंचो मानवा अपि । त्रिवेदानुगतानेककर्मभावनिबन्धतः ॥ १६६ औपपादिकदेहा ये येsपि चान्त्यशरीरिणः । नापवर्त्यायुषस्तेषां ' कृतपुण्यविपाकतः ॥ १६७ मिथ्यादृष्टिस्ततस्तावत्सासादनदृगुच्यते । तृतीयो मिश्रदृष्टिश्चासंयतः सम्यग्दृक्परः ॥ १६८
जीव विग्रहगति में जाकर सुदूरवर्ती क्षेत्रों में उत्पन्न होता है । बीचमें पहाड आदिक पदार्थोंसे उन शरीरोंसे युक्त यह जीव रोका नहीं जाता है ॥ १६१ ।।
सिद्धान्तसार:
संपूर्ण संसारी जीवोंके साथ इन दो शरीरोंका सम्बन्ध अनादिकालसे हुआ है । जैसे वृक्ष बीजसे उत्पन्न होता है । वह बीज पूर्व वृक्षसे उत्पन्न हुआ । वह वृक्ष उसके पूर्व बीजसे उत्पन्न हुआ है । बीजवृक्षका संबंध जैसा अनादि कालसे है वैसा प्रस्तुत तैजस- कार्मण पूर्व तैजस-कार्मणसे उत्पन्न हुए, पूर्व तैजस- कार्मण उनके पूर्व तैजस- कार्मणोंसे उत्पन्न हुए हैं ऐसी इन तैजस कर्मणोंकी अनादि कार्यकारण - संतति है । जैसे इस बीज से यह वृक्ष हुआ है, ऐसा कहनेसे उन बीज - वृक्षोंका सादि संबंध सिद्ध होता है, वैसे तैजस कार्मण शरीरविशेषकी अपेक्षासे सादि कह सकते हैं, जैसे सांप्रतका मिथ्यात्व - कर्मका बंध पूर्व मिथ्यात्व के उदयसे होता है । इस प्रकार इनकी कार्यकारणकी सन्तति है । विशेषापेक्षासे प्राणियोंके लिये सादिभी है । जिनकी दुखोंकी संगति दूर हुई है ऐसे यतिनायकोंने इस प्रकार तैजस-कार्मण शरीरोंका संबंध कहा है ।। १६२-१६३ ।।
इस प्रकार पांच प्रकारके शरीरसे ये शरीरधारी प्राणी आपत्तिरूप तरंगों से चंचल ऐसे संसारसमुद्रमें भ्रमण करते हैं ।। १६४ ॥
( जीवोंका लिंगनिर्णय । ) - संपूर्ण नारकी जीव तथा सम्मूच्छिन जीव नपुंसकही होते हैं । देव पुण्यवान होनेसे नपुंसक नहीं होते हैं ।। १६५ ।।
शेष अर्थात् तिर्यंच और मनुष्य भी तीन वेदके धारक हैं; क्योंकि तीन वेदोंको अनुकूल कर्मबंधके योग्य उनके भाव होते हैं ।। १६६ ॥
जो औपपादिक देहवाले देव और नारकी हैं तथा जो अन्त्यशरीरवाले - तद्भव मोक्षगामी हैं, उनको किये हुए पुण्यके उदयसे अपवर्त्यायुष्कता नहीं है । अर्थात् विष -शस्त्रादि कारणोंसे
१ आ. स्तेऽमी घनपुण्य विपाकतः
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