Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
तदपि यदि निहीना ज्ञानचारित्रहीना । न हि परिगणयन्ते हा हतास्ते हताशाः ॥ ९३ अतुलितमहिमानं वर्द्धमानं ह्यमानम् । जिनवरवरवीरं चारुचारित्रधीरम् ॥ हृदयगतमनूनं यो दधात्यत्र नूनम् । नरकगतिविशेषस्तस्य नामकशेषः ॥ ९४ इति श्रीसिद्धान्तसारसङग्रहे पण्डिताचार्यश्रीनरेन्द्रसेनविरचिते नरकगतिस्वरूपप्ररूपणः
षष्ठः परिच्छेदः
दुःखोंको ध्यान में नहीं लाते हैं । नरकोंमें तीव्र दुःख असदाचारसे भोगना पडता है इस बातका विचारही नहीं करते हैं । अहह ! ऐसे हताश पुरुष नष्टही हुए ऐसा समझना चाहिये ।। ९३ ॥
जिनकी महिमा अनुपम है और जो अमान-गर्वरहित हैं अर्थात् उपलक्षणसे क्रोधादि कषाय और ज्ञानांवरणादि कर्मोंसे रहित हुए हैं, जिनका ज्ञान पूर्ण वृद्धिंगत हुआ है, जो सर्वज्ञ हुए हैं, जिन्होंने सुंदर चारित्र-यथाख्यात चारित्र धारण किया है, तथा जो धीर हैं-अनन्त शक्तिमान हैं, जो जिनवरमें गणधरादिकोंमें वर-श्रेष्ठ है ऐसे वीरभगवानको, जोकि अनून अर्थात् महान् है, गुणोंसे परिपूर्ण जो हृदयमें उनको धारण करते हैं उनको नरकगतिका विशेष नामसेहि शेष है अर्थात् वे नरकगतिको प्राप्त होते नहीं ॥ ९४ ॥ इस प्रकार पण्डिताचार्य श्रीनरेन्द्रसेनजीके रचे हुए सिद्धान्तसार संग्रहमें नरकगतिका
स्वरूप कथन करनेवाला छठा अधिकार समाप्त हुवा।।
१ आ. इति श्रीसिद्धान्तसारसंग्रह आचार्यश्रीनरेन्द्रसेनविरचिते षष्ठः परिच्छेदः समाप्तः ।।
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