Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-७. २३४)
सिद्धान्तसारः
(१८५
तिर्यग्लोकगता किञ्चित्कृता लोकस्य वर्णना। ऊर्ध्वलोकाश्रिता तावत्साम्प्रतं सा विधीयते॥२३२ इत्याद्यनेकभवगर्तविवर्तवतियोनिष्वनादि विचरन्नपि जीव एषः ।
नाद्यापि भङगमलमङ्ग समाकलय्य जैनेश्वरं श्रयति हा किमिहातनोमि ॥ २३३ जैनेश्वरं मतमिहाप्य च सिद्धबोधाः शृण्वन्ति साधु कलयन्ति विचारयन्ति ।
ये ते जगत्रयशिरःशुभशेखरत्वमात्मन्यनन्तसुखमाशु निमापयन्ति ॥ २३४ इति श्रीसिद्धान्तसारसङग्रहे पण्डिताचार्यश्रीनरेन्द्रसेनविरचिते मध्यलोकविचारणानिरूपणं
समाप्तम सप्तमः परिच्छेदः।
पूर्व में कहा हुआ जो संसाररूपी गडहा वही भौंरारूपी जो चौरासी हजार योनि उनमें यह जीव अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है। हे जीव ! यह संसार अद्यापि नष्ट नहीं होता ऐसा जानकर तूं जिनेश्वरका मतका आश्रय कर । हे जीव ! अब मैं इससे अधिक तुझे क्या कहूं ? जिनका ज्ञान निर्मल है ऐसे जो भव्य जीव जिनेश्वरका मत प्राप्त करके उसे सुनते हैं, धारण करते हैं और उसका विचार करते हैं, वे जगत्रयको सुखदायक ऐसे जिनमतमें स्थिर रहकर शुभकार्योंमें शेखररूप- अर्थात् श्रेष्ठ ऐसा अनन्त सुख आत्मामें प्राप्त करते हैं ॥ २३३-२३४ ।।
श्रीपंडिताचार्य नरेन्द्रसेनविरचित सिद्धान्तसारसङग्रहमें मध्यलोकविचारणाका निरूपण
करनेवाला सातवा अध्याय समाप्त हुआ।
१ आ. जीवस्य २ आ. 'पण्डित ' इति नास्ति ३ आ. मध्य इति नास्ति S.S.24.
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