Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 225
________________ सिद्धान्तसारः अधोग्रैवेयकेषूक्तं सार्द्धहस्तद्वयं पुनः । देहमानं हि देवानां मध्यग्रैवेयके द्वयम् ॥ १०८ सार्द्धहस्तप्रमाणोऽयं देहोऽभाणि पुरातनैः उर्ध्वग्रैवेयकस्थानां देवानां द्युतिशालिनाम् ॥ १०९ ततः परं हि सर्वेषां देवानां देह उच्यते । एकहस्तप्रमाणेन प्रमाणज्ञैर्यतीश्वरः ॥ ११० सौधर्मेशानयोः पीतलेश्या देवा भवन्त्यमी । सनत्कुमारमाहेन्द्राः पीतपद्मादिलेश्यकाः ॥ १११ ब्रह्मब्रह्मोत्तरे कल्पे लांतवे च तथा पुनः । कापिष्ठे सर्वदेवाः स्युः पद्मलेश्याः समन्ततः ॥ ११२ शुक्रे चापि महाशु शतारे सर्वसुन्दरे । सहस्रारे च देवानां पद्मशुक्ला' हि सा पुनः ॥ ११३ आनतादच्युतान्तेषु शुक्ललेश्या दिवौकसः । महाशुक्लेकलेश्याः स्युस्ततो यावदनुत्तरम् ॥ ११४ पूर्वं ग्रैवेयकेभ्यो ये देवास्ते कल्पवासिनः । कल्पातीताः परे सर्वे पुण्यपक्वफलाशिनः ॥ ११५ लौकान्तिकाश्च ते देवा ब्रह्मलोकान्तवासिनः । अथानन्तर एवामी भवे लोकान्तकारिणः ॥ ११६ पूर्वोत्तरविभागे ते सन्ति सारस्वता मताः । पूर्वस्यां हि तथादित्या आग्नेय्यामग्निसंज्ञकाः ॥ ११७ १९८) हस्तप्रमाण है । और आरण अच्युतके देवोंके शरीर तीन हस्तप्रमाण हैं । अधोग्रैवेयकके अहमिन्द्रोंके देहकी ऊंचाई ढाई हाथकी है । मध्यमग्रैवेयकके देवोंका देहमान दो हाथका है । कान्तिशाली ऐसे जो ऊर्ध्वग्ग्रैवेयकके देव हैं उनका देह पुरातन आचार्योने डेढ हाथ प्रमाणका कहा है । तथा उसके आगेके संपूर्ण देवोंका देह हस्तप्रमाण है, ऐसा देव देहप्रमाण देह यतीश्वरोंने कहा है । अर्थात् नव अनुदिश और पंचानुत्तरके निवासी अहमिद्र देवोंका देह एक हस्तप्रमाण है ।। १०२ - ११० ।। (८.१.०८ - ( सौधर्म से सर्वार्थसिद्धितक देवोंकी लेश्यायें ) - सौधर्मेशान स्वर्ग के देव पीतलेश्याके धारक हैं । सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके देव पीतलेश्या और पद्मलेश्याके धारक हैं । ब्रह्मस्वर्ग तथा ब्रह्मोत्तरस्वर्गके देवोंमें तथा लांतवकापिष्ट स्वर्गके देवोंमें सर्वत्र पद्मलेश्या हैं। शुक्र, महाशुक्र तथा सर्वमनोरम ऐसे शतारस्वर्ग में और सहस्रारस्वर्ग में देवोंकी पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या है । आनतसे अच्युततकके देव शुक्ललेश्यावाले हैं । तदनन्तर नवग्रैवेयकसे लेकर पंचानुत्तरतक संपूर्ण अहमिन्द्र देव महाशुक्लरूप ऐसी एकलेश्याके धारक हैं ।। १११-११४ ॥ ( कल्पवासी और कल्पातीत । ) - नवग्रैवेयकोंके पूर्वके देव अर्थात् सौधर्मस्वर्ग से अच्युततक के जो देव हैं, उनको कल्पवासी देव कहते हैं । और नवग्रैवेयक से पंचानुत्तरतक संपूर्ण अहमिन्द्रोंको कल्पातीत कहते हैं । ये सर्वदेव पुण्यरूपी पक्वफल भक्षण करनेवाले हैं ।। ११५ ।। ( लौकान्तिक देवोंका स्वरूप | ) - ब्रह्मस्वर्गके अन्तिम पटलमें निवास करनेवाले देवोंको लौकान्तिक देव कहते हैं । ये देव अनन्तर मनुष्यभव धारण कर लोकान्तकारी - संसारका अन्त करनेवाले होते हैं। उनके सारस्वतादिक आठ भेद हैं, तथा अग्न्याभसूर्याभादि सोलह भेद हैं । पूर्वोत्तर दिशा के कोने में सारस्वत विमान में सारस्वतनामक लौकान्तिक देव रहते हैं । पूर्व दिशाके १ आ. पद्मा २ आ. मराः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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