Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 226
________________ - ८. १२५ ) ( १९९ अरुणा दक्षिणस्यां च नैऋत्ये गर्दतोयकाः । तुषिताः पश्चिमायां च 'अव्याबाधास्तदन्तरे ॥ ११८ उत्तरस्यामरिष्टानां विमानानि तदन्तरे । द्वौ च द्वौ च ? गणौ ज्ञेयौ विचित्राकारधारिणौ ॥ ११९ अग्निसूर्याभनामानौ चन्द्रसत्याभनायकौ । श्रेयः क्षेमङ्करावेतौ वृषकामच वरौ ॥ १२० निर्वाणादिरजोदिव्यदिगन्तरसुरक्षितौ । आत्मरक्षित सर्वादिरक्षितौ दिव्यविग्रहौ ॥ १२१ मरुद्वस्वश्वविश्वौ च क्रमादन्तरवर्तिनौ । लौकान्तिकसुदेवानामिति वाचो विपश्चिताम् ॥१२२ देवानामर्चनीयास्ते सर्वे लौकान्तिकामराः । प्रतिबोधपरास्तीर्थकृतां पूर्वधराः पुनः ॥ १२३ तेषामायुः प्रमाणं स्यात्तदष्टौ सागरोपमं । देवर्षयश्च ते सर्वे संक्लेशेन विवर्जिताः ॥ १२४ विजयादिषु ये देवास्ते तद्द्विचरमा मताः । तस्मिन्नेव भवे मुक्ताश्चयुताः सर्वार्थसिद्धितः ।। १२५ सिद्धान्तसारः आदित्य विमानमें आदित्यनामक देव रहते हैं । पूर्व-दक्षिण दिशामें - आग्नेय दिशामें अग्निनामक देव रहते हैं । दक्षिण दिशामें अरुण विमानमें अरुणदेव रहते है । नैऋत्य दिशामें गर्दतोय विमानमें गर्दतोयदेव रहते हैं । पश्चिम दिशामें तुषित देव रहते हैं । उत्तरपश्चिम दिशाके अव्याबाघ विमानमें अव्याबाधनामक देव रहते हैं । उत्तर दिशाके अरिष्टनामक विमानमें अरिष्टनामक देव रहते हैं। तथा इन सारस्वतादिकों के बीच में औरभी दो दो देवगण, जो आश्चर्यकारक आकार धारण करते हैं, रहते हैं । उनका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- सारस्वत और आदित्य के अन्तराल में अग्न्याभ और सूर्याभ देव रहते हैं । आदित्य और वह्निके अन्तरमें चन्द्राभ और सत्याभ देव रहते है । ह्नि और अरुणके अन्तराल में श्रेयस्कर क्षेमंकर देव रहते हैं । अरुण और गर्दतोयके अन्तरालमें वृषभेष्ठ और कामचर ये देव रहते हैं । गर्दतोय और तुषित देवोंके अन्तरालमें निर्माणरज और दिगंतरक्षित देव रहते हैं । तुषित और अव्याबाधके मध्य में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित देव रहते हैं । अव्याबाध और अरिष्टके अन्तरालमें मरुद् और वसु रहते हैं । अरिष्ट और सारस्वतोंके मध्यमें अश्व और विश्व देव रहते हैं । ये सर्व लौकान्तिक देव देवोंमें श्रेष्ठ हैं ऐसा विद्वान कहते हैं । ये सर्व लौकान्तिक देव देवोंके द्वारा पूजनीय है। तीर्थंकरोंको जब वैराग्य होता है, तब उनको प्रतिबोध करनेमें तत्पर रहते हैं। ये चौदह पूर्वोके ज्ञानको धारण करते हैं । उनके आयुका प्रमाण आठ सागरोपम वर्षोंका होता है। इनको देवर्षि कहते हैं, क्योंकि ये संक्लेशपरिणामों से रहित होते हैं ।। ११६-१२४ ।। ( द्विचरम देवोंका स्पष्टीकरण । ) - विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित, तथा नव अनुदिश विमानवासि देव द्विचरम हैं । मनुष्यभवकी अपेक्षासे चरमत्व यहां समझना चाहिये । जिनके दो चरम देह हैं उनको द्विचरम कहना चाहिये । विजयादिकोंसे च्युत होकर सम्यक्त्वसे मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । पुनः संयमकी आराधना कर विजयादिकोंमें उत्पन्न होते हैं और पुनः वहां से च्युत होकर सम्यक्त्वके साथ मनुष्यभव धारण कर मुक्त होते हैं इसलिये वे द्विचरम Jain Education International १ आ. देव्योबाधाः २ आ. देवगणौ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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