Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-६. ९२)
सिद्धान्तसारः
(१५३
तप्तायोरसपानं च तप्तायस्तम्भरोहणम् । घनाभिघातनं तीक्ष्णवासीारविकर्तनम् ॥ ८६ तत्रैव क्षारतलानामभिषेकं सुदुःसहम् । अयसः कुम्भीपाकैकभर्जनं यन्त्रपीडनम् ॥ ८७ छेदनं भेदनं दुष्टं त्रासनं भीषणं भयम् । इत्यादिबहुदुःखैकहेतुभूतं सुदुस्सहम् ॥ ८८ जन्तुघातभवानेकरौद्रध्यानविद्धिनः । लभन्ते नारका ह्यर्थं दुःकर्मपरिपाकतः॥ ८९ ज्ञात्वेति भव्यजीवेन दुर्गते१ःखमायतम् । अहिंसादिवतं पूतं ध्रियते श्रीजिनोदितम् ॥ ९० संसारकानने भीमे नारकादिकुयोनिषु । सरन्नपि न विश्रामं ही जीवो याति जातुचित् ॥ ९१ मुक्त्वा जनेश्वरं धर्म सर्वशर्मकरं परम् । जीवो दुर्गतिदुःखेभ्यो प्रियते केन सत्सुखे ॥ ९२ नरकगतिगतानां प्राणिनां वृत्तमेतत्' । हृदि घृतमपि दुःखं यज्जनानां ददाति ॥
वहां नारकी आपसमें तपे हुए लोहेका रस पिलाते हैं, तपे हुए लोहेके खंभोपर चढाते हैं, धनोंसे मस्तकपर खूब पीटते हैं । तीक्ष्ण वासी और उस्तरेसे वे शरीरोंको छीलते हैं, विदारण करते हैं। उन नरकोंमें वे नारकी क्षारजलोंका अभिषेक छीले हुए नारकियोंके अंगोंपर करते हैं जिससे उनको अत्यंत दुस्सह वेदना होती है। लोहेकी कढाईमें पकाना, भुंजाना और यंत्रमें पेलना, छेदन करना, भेदन करना, दोषयुक्त त्रास देना, भीषण भय दीखाना ये सब कार्य अत्यन्त दुःखके मुख्य हेतुभूत हैं और अतिशय दुःस्सह हैं ॥ ८६-८८ ॥
नारकी जीव प्राणियोंके घातसे उत्पन्न हुए अनेक रौद्रध्यानोंको बढानेवाले ऐसे नारकीय अनर्थोंको दुष्कर्म परिपाक होनेसे-अशुभ कर्मका उदय होनेसे भोगते हैं ।। ८९ ॥
नारकियोंको प्राप्त हुए दुर्गतिके विस्तीर्ण दु:खोंको इस प्रकार जानकर भव्यजीवोंकेद्वारा श्रीजिनेश्वरने कहे हुए पवित्र अहिंसादि व्रत धारण किये जाते हैं ।। ९० ॥
अरेरे ! इस भयंकर संसाररूप वनमें नारकादिक अनेक कुयोनियोंमें इस जीवने स्वल्प विश्रामभी कदापि प्राप्त नहीं किया है । ९१ ॥
संपूर्ण सुखको देनेवाला अर्थात् अनन्त सुखरूप मुक्तिको प्रदान करनेवाला जिनेश्वरका उत्तम धर्म छोडकर दूसरा कौनसा धर्म-वैदिकादि धर्म जीवको दुर्गतिदुःखोंसे निकालकर उत्तम दुःखरहित सुख में स्थापन करता है ? अर्थात् जीवोंको अन्यधर्म दुःखरूप चतुर्गतिमें भ्रमण करानेके कारण हैं ॥ ९२ ॥
___ नरकगतिमें जो प्राप्त हुए हैं, ऐसे प्राणियोंका यह वृत्त हृदयमें धारण करनेपरभी लोगोंको दुःखित करता है । तो भी ज्ञान और चारित्रसे हीन अर्थात् अज्ञानी और स्वच्छंदी पुरुष उन
१ आ. दुःख S.S. 20.
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