Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 200
________________ -७. १६४) सिद्धान्तसारः (१७३ त एते ऋद्धीसम्पन्नाः पञ्चधा परिकीर्तिताः। क्षेत्रार्याश्च सुजात्यार्याः कार्याश्च तथा पुनः॥१६३ चारित्रार्याश्च विज्ञेया दर्शनार्याश्च ते पुनः।श्रीजिनेन्द्रस्य सद्वाक्यविश्वस्तैर्मुनिभिः सदा ॥ युग्मम् है और कोई जिनको ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई हैं वे अनृद्धि-प्राप्तार्य है । जो ऋद्धि-प्राप्तार्य हैं वे पांच प्रकारके कहे हैं । क्षेत्रार्य, सुजात्यार्य, कार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य । श्रीजिनेन्द्र के सत्य वचनोंपर विश्वास रखनेवाले मुनियोंने अनृद्धिप्राप्तार्यके ऐसे प्रांच भेद कहे हैं ।। १६२-१६४ ॥ स्पष्टीकरण- १ क्षेत्रार्य- काशीकोशलादि स्थानोंमें उत्पन्न हुए जो आर्य है उनको क्षेत्रार्य कहते हैं। २ जात्यार्य- इक्ष्वाकुआदिवंशोंमें उत्पन्न हुए आर्योंको जात्यार्य कहते हैं । अर्थात् क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और ब्राह्मणोंके जो अनेक वंशभेद हैं उनमें उत्पन्न हुए आर्योंको जात्यार्य कहना चाहिये । ३ कार्यके तीन भेद हैं- सावध कार्य, अल्पसावध कार्य और असावद्य कार्य । १ सावद्यकर्मार्योंके यह भेद हैं- असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वणिक् कर्म अर्थात् असिकर्यि, मसिकर्मार्य, कृषिकर्मार्य, विद्याकर्यि, शिल्पकार्य और वणिक्कार्य । १ असिकर्मार्य- तरवार, धनुष्य आदि आयुधोंके प्रयोगमें कुशल आर्योंको असिकर्मार्य कहते हैं । २ मसिकर्मार्य- धनकी आय और व्ययादि लिखने में चतुर आर्योंको मसिकार्य कहते हैं । ३ कृषिकर्मार्य- हल आदि खेतीके उपकरणोंके जानकार आर्योंको कृषिकर्मार्य कहते हैं । ४ विद्याकार्य- चित्रकला गणितादि बाहत्तर कलाओंमें चतुर आर्योंको विद्याकार्य कहते हैं। ५ शिल्पकार्य- धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार, सुनार आदिकोंको शिल्पकार्य कहते हैं । ६ वणिक्कआर्य- चन्दनादिगंध, घी, तेल आदिक रस, शालि आदिक धान्य, कपास आदिकोंके वस्त्र, मोती, रत्न आदि नाना वस्तुओंका संग्रह करनेवाले आर्योंको वणिक्कार्य कहते हैं । ये छहों प्रकारके आर्य अविरतियुक्त होनेसे सावध कार्य कहे जाते हैं। २ अल्पसावद्य कर्यि अर्थात् श्रावक, जोकि स्थावरहिंसाके त्यागी नहीं है और त्रसहिंसाके त्यागी तथा अणुव्रतके पालक होते हैं। ३ असावद्यकर्मार्य- संपूर्ण हिंसादिपापोंके पूर्ण त्यागी मुनिराज असावद्यकार्य हैं। क्योंकि कर्मक्षयके लिये उद्यत ऐसे विरतिरूप परिणामोंके वे धारक होते हैं । चारित्रार्य- इनके अभिगत-चारित्रार्य और अनभिगत-चारित्रार्य ऐसे दो भेद हैं। चारित्रमोहकर्मका उपशम होनेसे और क्षय होनेसे बाह्य उपदेशकी अपेक्षाके बिना आत्माकी प्रसन्नता होनेसेही चारित्रपरिणामोंको धारण करनेवाले उपशांत-कषाय और क्षीण-कषाय मुनिराजोंको अभिगतचारित्रार्य कहते हैं । ____ अनभिगत चारित्रार्य- अंतरंगमें चारित्रमोहकर्मका क्षयोपशम होनेसे और बाह्यमें उपदेशका निमित्त प्राप्त होनेसे जिनको विरतिरूप परिणाम होते हैं उसको अनभिगतचारित्रार्य कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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