Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसार:
-७. १८७ )
सर्वार्थसिद्धिसौधैक प्रापकस्य सुकर्मणः । दुःकर्मणस्त्वधोभूमिप्रापकस्य समाश्रयः ॥ १८३ यास्ताः कर्मभुवो ज्ञेयाः शेषां भोगेकभूमिकाः । कर्ममात्राभिसंस्थानं जगत्सर्वं निगद्यते ॥ १८४ षड्विधस्य महापापकर्मणः कर्मभूमयः । संस्थानं पात्रदानादि सुमहाकर्मणोऽपि च ॥ १८५ समस्तकर्मणां मोक्षं भव्याः कुर्वन्ति यत्र वा । नान्यस्मिन्नत एवासौ कर्मभूमिनिगद्यते ॥ १८६ कर्मभूमावपि प्राप्य मानुषत्वं सुदुर्लभम् । ही मोहान्धतमश्छन्नो नात्मानमधियास्यति' ॥ १८७
( १७९
( कर्मभूमिका स्वरूप 1 ) - सर्वार्थसिद्धिरूपी प्रासादकी प्राप्ति करनेवाले शुभकर्मका बंध जहां होता है तथा जो सप्तमनरक- भूमिकी प्राप्ति करानेवाले दुष्कर्मका बंध करानेवाली है उसे कर्मभूमि कहते हैं । तात्पर्य यह है, कि सर्वार्थसिद्धिकी प्राप्ति करनेवाली तथा तीर्थकरत्व महाऋद्धिको उत्पन्न करनेवाले असाधारण शुभ कर्मका बंध जीवको कर्मभूमी मेंही होता है । अन्यत्र ऐसा उत्कृष्ट शुभ कर्मबंध नहीं होता । तथा अप्रतिष्ठान नरकभूमिमें ले जानेवाला अत्यंत अशुभकर्म कर्मभूमीमें ही जीव उपार्जित करते हैं । अन्यत्र अत्यंत तीव्र अशुभकर्मका बंध नहीं होता । क्योंकि कर्मबंध जो होता है वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे होता है । कर्मभूमिमेंही उत्कृष्ट शुभाशुभ कर्मबंध होने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों का संयोग होता है अन्यत्र नहीं । तथा संसारकारण कर्मोंकी निर्जरा भी यहांही होती है । अतः एव भरतादि क्षेत्रोंकोही आचार्योंने कर्मभूमि कहा है ।। १८३ ॥
उपर्युक्त कर्मभूमिका लक्षण जिनमें है उनको कर्मभूमि कहते हैं । बाकीकी भूमियाँ भूमि कही हैं । यद्यपि आठ प्रकारके कर्मबंध सर्व मनुष्यक्षेत्रों में साधारण हैं । तथापि विशिष्ट कर्मबंधकी अपेक्षासे यहां कर्मभूमिका लक्षण किया है; तथा वह लक्षण देवकुरु, उत्तरकुरु विरहित समस्त विदेहक्षेत्र, भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र में चला जाता है । अतः उनकोही कर्मभूमि कहना चाहिये। बाकीके स्थान भोगभूमि स्वरूप हैं; क्योंकि संपूर्ण जगत् सामान्यतया कर्मबंधनका स्थान है ॥ १८४ ॥
असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ऐसे छह प्रकारके महापाप उत्पन्न करनेवाले कर्मोकी प्रवृत्ति कर्मभूमिमेंही देखी जाती है । तथा देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ऐसे छह शुभ कर्मोंमें प्रवृत्तिभी इस कर्मभूमिमेंही देखी जाती है। यहांही संपूर्ण कर्मोंका नाश कर भव्य मोक्षप्राप्ति कर लेते हैं । अतः भरतादि क्षेत्रोंकोही कर्मभूमि कहना चाहिये । अन्यत्र जीवनके षट्कर्म, देवपूजादि शुभ षट्कर्म, और कर्मनिर्जरा तथा कर्ममुक्तता नहीं होती है । अतः ऐसे देवकुरु, उत्तरकुरू, हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यवत आदि क्षेत्रोंको भोगभूमिही कहते हैं ॥। १८६ ॥
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कर्मभूमि भी मनुष्यपना प्राप्त करके मोहान्धकारसे व्याप्त होकर मनुष्य अपने आत्माकी प्राप्ति नहीं करता है यह बात उसको दूषणास्पद है ।। १८७ ।।
१ आ. मधियस्यति ।
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