Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-४. १०५ ) सिद्धान्तसारः
(८५ प्रमाणाबाधितत्वेन सर्वज्ञस्य महात्मनः । सिद्धिन हन्यते मिथ्यादृष्टिभिर्वेदवादिभिः ॥ १०० अथागमस्य नित्यस्य प्रामाण्यं स्वत एव हि । अपौरुषेयतस्तस्माद्धर्माद्यर्थेषु सत्प्रमा ॥ १०१ अपौरुषेयता तस्य सद्भिः शब्दस्य सर्वथा । नित्यत्वात्कथिता तद्धि वर्णानां नित्यधर्मतः॥१०२ तदेवेदमिति व्यक्ता देशकालान्तरेऽपि या।प्रत्यभिज्ञा ततः शब्दो नित्यो व्यापी सवर्णकः॥१०३ अभिव्यञ्जकवायूनां नियतत्वान्न सर्वदा । सर्वत्र श्रवणं तेषामिति वाचो विपश्चिताम् १०४ कर्तुरस्मणाद्वापि पौरुषेयत्वनिह्नवः । वेदे भवति किं तस्मात्सर्वज्ञसमवस्थितिः ॥ १०५
सर्वज्ञमहात्मा प्रमाणोंसे बाधित नहीं होनेसे उसकी सिद्धि वेदवादी मिथ्यादृष्टियोंसे नष्ट नहीं की जा सकती ॥ १०० ।।
यहां तक सामान्य सर्वज्ञकी सिद्धि जैनोंने की है। इसके अनंतर मीमांसक 'आगम अपौरुषेय है ' ऐसा पूर्व पक्ष स्थापित करते हैं
आगम नित्य है, क्योंकि सज्जनोंने शब्द सर्वथा नित्य कहे हैं और शब्दोंकी नित्यता वर्णोंकी नित्यतापर निर्भर है। अर्थात् वर्ण, शब्द और आगम तीनोंही नित्य हैं। नित्य आगमकावेदका प्रामाण्य स्वतःही है, इसलिये वह आगम अपौरुषेय है तथा धर्मादिक अर्थों के प्रतिपादनमें वही प्रमाणभूत है, अन्य नहीं ॥ १०१ ।।
शब्द नित्य है, व्यापी है और वर्णसहित है। तथा उसकी नित्यता देश और कालान्तरमेंभी वही है' इस प्रकारकी प्रत्यभिज्ञासे सिद्ध होती है । जो शब्द मैंने कल सुना था वही शब्द में आज सुन रहा हूं, जो शब्द मैंने घरमें सुना था वही शब्द मैं आज पाठशालामें सुन रहा हूं इस प्रकार शब्दकी नित्यताका द्योतक ज्ञान होता है । वह ज्ञान शब्द नित्य और व्यापक नहीं होता तो कैसे होता ? अतः शब्द नित्य है, व्यापी है और वर्णोसहित है ॥ १०२-१०३ ॥
“यदि शब्द नित्य और व्यापक है तो सर्वकालमें और सर्व स्थानमें उसको लोग क्यों नहीं सुनते हैं ? अर्थात् शब्द नित्य होनेसे सब जगतके लोग उसे सुन पाते, और व्यापकताभी उसकी प्रकट हो जाती परंतु वैसा वह नहीं है अतः उसको व्यापक और नित्य मानना योग्य नहीं है " ऐसा जैनके कहनेपर मीमांसक उसका उत्तर इस प्रकार देते हैं- " शब्दको प्रगट करनेवाले अभिव्यंजक वायु नियत हैं इसलिये शब्दका हमेशा और सर्वस्थानोंमें श्रवण नहीं होता है, ऐसा विद्वानोंका कथन है" जब शब्द नित्य है तो वेद शब्दात्मक होनेसे वे भी नित्य हैं, अनादिनिधन
और अपौरुषेय हैं । " वेदके कर्ताका स्मरण नहीं होता है " इस अन्य हेतुसेभी उस वेदके पौरुषेयत्वका निरास होता है । अपौरुषेय वेदसेही सर्व पदार्थों का ज्ञान होता है। अतः सर्वज्ञका अवस्थान माननेकी आवश्यकता नहीं है ।। १०४-१०५ ॥
(वेदके अपौरुषेयताका खण्डन)- मोहरूप गाढान्धकारसे व्याप्त हुआ है चित्त जिनका ऐसे मीमांसकोंका यह कहना है । ये मीमांसक नष्टकर्मा और नष्टधर्मा है । अर्थात् इनका कोई कार्य और धर्म सिद्ध नहीं होता; क्योंकि उसका विचार करनेसे वह सिद्ध नहीं होता ।। १०६ ॥
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