Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-५. ११२ )
( १३१
विग्रहग्रहणायास्य प्रवृत्तौ गतिकारणम् । तत्कार्मणं शरीरं स्यात्सर्वेषां बीजमादिमम् ॥ १०८ योगो वा वाङ्मनःकायसद्व्यापारैकलक्षणः । तद्गतौ कारणत्वेन निश्चिन्वन्ति विपश्चितः ॥ १०९ जीवानां पुद्गलानां च लोकाकाशैकवर्तनाम् । अनुश्रेणिगतिज्ञेया गतिज्ञानं जिघृक्षुभिः ॥ ११० एवं चेद्भास्करादीनां कथं विश्रेणिका गतिः । नैष दोषः क्वचिन्मृत्योः कालदेशाद्यपेक्षणात् ॥१११ गतिर्मुक्तस्य जीवस्य कौटिल्येन विर्वाजता । कारणाभावतः कार्यं कि क्वापि व्यवतिष्ठते ॥ ११२
सिद्धान्तसारः
( कार्मणशरीर ) - पूर्वशरीर छोडकर जब आत्मा उत्तरशरीर ग्रहण करनेके लिये प्रवृत्ति करता है तब उसको भवान्तर केलिये गति करने में जो कारण होता है, उसे आचार्य कार्मणशरीर कहते हैं । यह शरीर औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरकी उत्पत्ति में मूल कारण है । तथा यह सब शरीरोंमें पहिला है । इसके न होनेपर सर्व शरीरोंकी उत्पत्ति नही होगी, इसके होनेसेही औदारिकादि शरीरोंकी प्राप्ति होती है ।। १०८ ॥
( जीवकी प्रवृत्तिमें योग कारण है । ) - वचन, मन और शरीरकी जो हालचाल होती है उसे योग कहते हैं । यही योगका लक्षण है । जीवकी एकस्थानसे दूसरे स्थानमें जो गति होती है, उसमें विद्वान लोग योगको कारणरूपतासे निश्चित करते हैं ।। १०९ ।।
( अनुश्रेणि गतिका स्वरूप | ) - लोकाकाशमें रहनेवाले जीव और पुद्गलोंकी गति अनुश्रेणि होती है ऐसा गतिज्ञानको ग्रहण करनेकी इच्छा रखनेवालोंको जानना चाहिये । शंकाजीव और पुद्गलोंकी यदि आकाशप्रदेशोंको अनुसरण करके गति होती है, तो सूर्य, चन्द्र विद्याधरादिकोंकी विश्रेणि गति क्यों होती है ? अर्थात् तिरछी और विदिशा आदिमें क्यों होती है ? आचार्य कहते हैं कि यह दोष नहीं हैं। यहां मृत्युके समयमें कालदेशादिकी अपेक्षासे अनुश्रेणि गति जीव पुद्गलोंकी कही है। जीव जब मरते हैं, तब भवान्तरमें जाते समय उनकी
श्रेणि गति होती है । अर्थात् नीचेसे - अधोलोकसे सीधे ऊपर ऊर्ध्वलोकमें, ऊपरसे सीधे नीचे, पूर्व से पश्चिम, पश्चिमसे पूर्व, दक्षिणसे उत्तर और ऊत्तरसे दक्षिणमें ऐसी गति होती है और उसको अनुश्रेणि गति कहते हैं । यह कालकी अपेक्षा जीवोंकी भवान्तर गति कही | मुक्त उर्ध्वगमनकालमें नियमसे अनुश्रेणि गतिही होती है। पुद्गलोंको जो लोकके अन्ततक ले जानेवाली
होती है वही अनुश्रेणिही होती है । इससे भिन्न कालमें जो गति होती है, वह अनेक प्रकारकी होती है ॥। ११०-१११ ॥
( मुक्तजीवकी गतिका स्वरूप । ) - मुक्तजीवको गति टेढीमेढी न होकर सीधीही होती है | टेढीमेढी गति होनेका जो कारण होता है वह उनकी गतिमें नहीं होने से वह सीधी होती है । कार्मणशरीर गतिको भवान्तरकी गतिको ले जाता था वह अब नहीं रहा अर्थात् कारणके अभावमें क्या कहां कुछ कार्य ठहर सकता है ? अपि तु नहीं ॥। ११२ ।।
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