Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
(५. २६
व्यापित्वे तस्य सर्वत्र वृत्तित्त्वात्किन वेदनम्। त्रैलोक्यान्तर्गतानां हि शीतोष्णानां सुदुस्सहम् ॥२६ कर्मभोक्तृत्वमप्यस्य सौगतानां निषेधकम् । तदृते पुण्यपापानां कारणं फल्गुतां व्रजेत् ॥ २७ संसारी कथ्यते जीवः प्रत्याख्यानाय केवलम् । सदाशिवस्य सर्वेषां संसारस्याप्रसङ्गतः ॥ २८ सिद्धत्वं तस्य जीवस्य भट्टकौलनिषेधकृत् । अन्यथा सर्वजीवानां सुखं वा दुःखमेव वा ॥ २९
( आत्माके व्यापित्वका निरसन । )- आत्मा यदि व्यापी मानी जायगा तो वह सर्वत्र रहनेसे उसे त्रैलोक्यके अन्तर्गत शीतोष्णोंका सुदुःसह अनुभव क्यों नहीं आयेगा? इसलिये आत्मा देहप्रमाण माननी चाहिये, क्योंकि देहसे अन्यत्र सुखदुःखोंका अनुभव कभीभी आत्माको आताही नहीं ॥ २६ ॥
(कर्मफल भोक्तृत्व नहीं है ऐसे सौगतपक्षका खण्डन । )- सौगत-बौद्ध आत्माको कर्मफलका भोक्तृत्व नहीं मानते हैं । परंतु यह मानना अयोग्य है, क्योंकि कर्मफलभोक्तृत्व नहीं माननेसे पुण्यपापोंकी कारणकल्पना व्यर्थ होगी। दान देना, पूजन करना, परोपकार करना ये पुण्यके कारण हैं । हिंसा करना, असत्य बोलना आदि पापके कारण हैं। ऐसा आगममें पुण्यपापके कारणोंका किया हुआ उल्लेख व्यर्थ होगा । इसलिये आत्मा कर्मफलोंका भोक्ता माननाही चाहिये ।। २७ ।।
(आत्मा सदामुक्त है ऐसे मतका निरसन ।)- आत्मा सदाशिव है अर्थात् अनादि मुक्तावस्थाका धारक है । उसे कर्मलेप हुआही नहीं ऐसा सदाशिवका मत है । जैनाचार्यने सर्व
माओंकी अनादि मक्तताका खण्डन किया है। क्योंकि यदि अनादि मक्तता मानी जायेगी तो आत्माको संसारावस्थाका प्रसंगही नहीं प्राप्त होगा। इसलिये आत्मा संसारी है। उसका वह संसार अनादिसे है, परन्त अनन्त नहीं है। कर्मोका नाश करके आत्मा मक्तावस्थाको प्राप्त करती है, इसलिये मुक्तावस्था सादि है और अनन्त हैं। सदा मुक्तावस्था जीवकी प्रत्यक्षप्रमाणसे सिद्ध नहीं होती, क्योंकि प्रत्येक आत्मा संसारमें शरीरधारी सुखदुःखोंका अनुभव लेती हुई दिखती है । जैनोंने एकान्तसे संसार नहीं माना है, क्योंकि ज्ञानादिगुणोंका विकास कर्मोंका क्षय होनेसे पूर्ण होता है, और आत्मा मुक्त होती है ।। २८ ॥
( आत्माको मुक्ति नहीं होती ऐसे माननेवाले भट्ट और कौलके मतका निरसन । )जीव मुक्त नहीं होता। उससे कर्म अलग नहीं होते हैं । इसलिये वह हमेशा संसारीही रहता है ऐसा भट्ट ओर कौल कहते हैं यह कहना योग्य नहीं है ; क्योंकि ऐसा माननेपर सर्व जीवोंको सुखी अथवा दुःखीही मानना पडेगा। लेकिन कोई पुण्यवान् जीव सुखी देखे जाते है तथा कोई पापी
१ आ. निषे धनम्
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