Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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११८)
सिद्धान्तसारः
(५. ३५ -
तद्रव्यक्षेत्रकालादिभवभावप्रभेदतः । परिवर्तनमाख्यातं पंचधा सूत्रकोविदः ॥ ३५ नौकर्मकर्मभेदेन द्रव्यादिपरिवर्तनम् । ख्यापिताशेषतत्त्वार्या द्विप्रकारमुशन्ति तत् ॥३६ त्रयाणां हि शरीराणां पर्याप्तीनां च पुद्गलाः । एकेनैवात्मना ये च गृहीताः प्रथमक्षणे ॥ ३७ स्निग्धरुक्षादिभेदेन तीव्रमन्दादिभावतः । अवस्थिता द्वितीयादिसमयेषु च सर्वथा ॥ ३८ जीर्णाश्चानन्तवारांस्ते व्यतिक्रम्यक्रमात्पुनः। यावन्नो कर्मतां यान्ति तन्नोकर्मविवर्तनम्॥३९त्रिकलम् एकेनैव हि जीवेन गृहीताः प्रथमक्षणे । पुद्गलाः कर्मयोग्या ये समयेनाधिकाश्च' ते ॥ ४० आवलिकामतिक्रम्य निर्जीर्णाः समयेषु च । द्वितीयादिषु पूर्वेण क्रमेणापि समन्ततः ॥ ४१ यावत्तस्यैव जीवस्य प्रपद्यन्ते प्रयोगतः । कर्मभावमिदं ज्ञेयं कर्मद्रव्यनिवर्तनम् ॥ ४२ त्रिकलम् । नोफर्मकर्मभावेन निवर्तन्तेऽत्र पुद्गलाः । ये च जीवस्य विज्ञेयः संसारः पुलाभिधः ॥ ४३
( द्रव्यपरिवर्तन )- द्रव्यपरिवर्तनके नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवर्तन ऐसे दो भेद हैं ऐसा संपूर्ण तत्त्वार्थोंका स्पष्टीकरण करनेवाले आचार्य कहते हैं ॥ ३६ ॥
तीनशरीर-औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर और आहारक शरीर तथा आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इंद्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति ऐसी छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंको पहिले क्षणमें स्निग्ध, रुक्षादि भेदसे तथा तीव्र, मन्द, मध्यादि भावसे एकही आत्माने जैसे ग्रहण किये थे वे द्वितीयादि समयपर्यन्त आत्मामें रहकर जीर्ण हुए। इसके अनंतर अनंतबार अगृहीत पुद्गलोंको ग्रहण कर छोड दिया है। अनंतबार मिश्र पुद्गलोंको ग्रहण कर छोड दिया, अनंतबार गृहीतकोभी ग्रहण करके छोड दिया, पुनः वही जीव उनही स्निग्ध रूक्षादि भावोंसे युक्त उनही पुद्गलोंको जितने समयमें ग्रहण करें उतने कालसमुदायको नोकर्म-द्रव्यपरिवर्तन कहते हैं ॥ ३७-३९ ॥
( कर्मद्रव्यपरिवर्तन)- एकही जीवने प्रथम क्षणमें कर्मयोग्य जो पुद्गल ग्रहण किये थे वे एक समयाधिक आवलिकाकालपर्यन्त रह कर द्वितीय समय, तृतीय समय आदि समयोंमें निर्जीर्ण हो गये। फिर पूर्वोक्त क्रमसे अगृहीत पुद्गलोंको अनंतबार ग्रहण करके छोड दिया, अनंतबार मिश्रपुद्गलोंको ग्रहण करके छोड दिया। अनंतबार गृहीतपुद्गलोंको ग्रहण करके छोड दिया। तदनंतर उसी जीवद्वारा प्रथम क्षणमें जैसे कर्मद्रव्य ग्रहण किये थे वैसेहि उतनेहि तीव्रमन्दमध्यादि भावसे पुनः ग्रहण किये जाते हैं उस समय कर्मद्रव्यपरिवर्तन होता है ।। ४०-४३ ॥
जो पुदगल जीवके नोकर्मरूप और कर्मरूप परिणत होते है उसको पुद्गलपरिवर्तन कहते हैं। जब दोनोंमेंसे कोई एक पूर्ण होता है तब उसे अर्धपुद्गलपरिवर्तन कहते हैं। और जब दोनोंभी पूर्ण होते हैं तब एक पुद्गल परिवर्तन कहते हैं ॥ ४२ ॥
१ आ. समयेनाधिकां च ते
२ आ. ये जीवस्य स
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