Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-५. ३४)
सिद्धान्तसारः
( ११७
मण्डलाख्यस्य बौद्धस्य मतव्याघातकारिणी। उर्ध्वस्वभावता जीवे कथिता जैनवादिभिः॥३० चेद्यत्रैव' च मुक्तोऽसौ तत्र तिष्ठति निश्चितम्। ततो धर्मास्तिकायस्य वैकल्यं केन वार्यते॥ ३१ किञ्चिदागमतो ज्ञात्वा स्वरूपं गदितं मया। विस्तरेण तु सर्वज्ञादृते केन निगद्यते ॥ ३२ जीवोऽनादिकसामान्यगुणेनैको मतः सताम् । मुक्तसंसारिभेदेनपुनधोपजायते ॥ ३३ संसारिणां" हि संसारः परिवर्तनमुच्यते । तच्च पंचविषं प्रोक्तं विविधागमपारगैः ॥ ३४
जीव दुःखी देखे जाते हैं। तथा कोई जीव कभी दुःखी कभी सुखी, कोई कभी दरिद्री और कभी श्रीमान् देखे जाते हैं इत्यादिक प्रमाणसे संसार अवस्था अनेक प्रकारकी देखी जाती है । आत्माको नित्य माननेपर कोई दुःखीही हमेशा देखे जायेंगे तो कोई हमेशा सुखीही देखे जायेंगे। एकरूपताकाही अनुभव आवेगा। अतः संसारावस्थाको नष्ट करनेवाली सिद्धावस्थाभी माननी पडेगी जिसमें आत्मा स्वस्वरूपमें और अनन्तसुखादिगुणोंमें रममाण होती हुई सदा रहेगी ॥ २९ ॥
(जीवके उर्ध्वगतिस्वभावका प्रतिपादन । )- मण्डलनामक बौद्धोंका मत ऐसा है, कि आत्मा मुक्त होकरभी पुनः संसारमें नीचे आगमन करती है । पुनः संसारावस्था धारण करती है। इस मंडलके मतका खंडन करनेकेलिये जैनवादियोंने जीवमें उर्ध्वगति स्वभाव माना है । अर्थात् कर्मोंका पूर्ण नाश होनेपर जीव उर्ध्वगमन करता है और लोकशिखरपर जाकर वास्तव्य करता है। कर्मसे जीव कभी नीचे कभी ऊपर और कभी पूर्वादिक दिशामें गमन कर शरीर धारण करता था। अब कर्म विनाश होनेपर उसकी गति इधर उधर न होकर सीधी और ऊपरकोही होती है। और वह सिद्धशिलापर सदा विराजमान होता है ॥ ३० ॥
__ जीव जहां कर्मनाश होता है उस स्थानपरही मुक्त होकर निश्चित यदि स्थिर होता तो धर्मास्तिकाय नामक द्रव्यका-जो कि जीव पुद्गलोंके गतिका कारण माना है-उसका अभाव मानना पडता परंतु उसका अभाव नहीं है । वह धर्मद्रव्य लोकान्ततक व्याप्त है, अतः वहांतक मुक्त हुए जीवका गमन होता है । उसके आगे वह द्रव्य न होनेसे मुक्तजीव आगे गमन नहीं करते हैं ।। ३१॥
इस प्रकार जीवका स्वरूप मैंने आगमसे थोडासा जानकर कहा है। सर्वज्ञके बिना विस्तारसे कौन जीव वर्णन करता है ? ॥ ३२ ॥
सज्जनोंने अनादि सामान्य गुणसे जीव एक माना है । तथा मुक्त और संसारी भेदसे जीवके दो भेद होते हैं ॥ ३३॥
संसारीके संसारको-( चतुर्गतिमें भ्रमणको परिवर्तन कहते हैं ) नाना प्रकारके आगमोंमें प्रवीण ऐसे आचार्योने पांच प्रकारका कहा है ॥ ३४ ॥
१ द्रव्यपरिवर्तन २ क्षेत्रपरिवर्तन ३ कालपरिवर्तन ४ भवपरिवर्तन और ५ भावपरिवर्तन।
१ आ. नो
२ आ. वैफल्यं
३ आ. सर्वज्ञमते
४ आ. जीवनादिका
५ आ. संसरणं
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