Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-५. २५)
सिद्धान्तसारः
(११५
एकान्ततोऽपि मूर्तः स्याद्यद्येष हतचेतसां । तदा' बाह्येन्द्रियग्राह्यः सर्वेषां स कथं न हि ॥ २१ शुद्धचैतन्यमाने स योगानामभिसम्मतः । तन्मतस्य निरासार्थमुपयोगी निगद्यते ॥ २२ बुद्धयादिकगुणोच्छेदे सर्वथा तस्य किं न हि । उच्छेदश्चेतनायाश्च सर्वशून्यमतो भवेत् ॥ २३ कर्मकर्तृकता तस्य भोक्तुः साहुख्यो निषेधति । अकर्तृत्वे कथं तेषां भोक्ता निर्लज्जचेतसाम्॥२४ स्वदेहप्रमितिश्चासौ कथितस्तत्त्ववेदिभिः । योगानां भाट्टसाङख्यानां तद्वचापित्त्वनिषेधनात् ॥२५
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जिनकी विचारशक्ति नष्ट हुई है ऐसे भाट्ट और चार्वाककी अपेक्षासे यदि यह आत्मा एकान्तसे मूर्तही है तो वह सब लोगोंको बाह्य इन्द्रियोंसे ग्राह्य क्यों नहीं होती है ? अतः आत्मा कथंचित् अमूर्तिक माननी चाहिये ॥ २१ ॥
यौगोंने आत्मा शुद्ध चैतन्यमात्र मानी है, उसके निराकरणार्थ आचार्योंने आत्मा उपयोगी मानी है । अर्थात् संसारावस्थामें आत्मामें मत्यादिज्ञानरूप उपयोग रहता है, और कर्मोंका नाश होनेपर आत्मा शुद्ध उपयोगका धारक-केवलज्ञान, केवलदर्शन ऐसे दो उपयोगोंकी धारक रहती है ।। २२ ॥
भावार्थ-यौगोंने आत्माको शुद्ध चैतन्यमात्र मानकरभी उसके बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार ऐसे नौ गुणोंका अत्यन्त क्षय होनेसे मुक्त दशा प्राप्त होती है ऐसा माना है । यह उनका मानना योग्य नहीं है ; क्योंकि बुद्धयादिक गुणोंका नाश होनेसे चेतनाकाभी नाश अवश्य होगा क्योंकि बुद्धिसे विभिन्न चैतन्य नहीं है । और चैतन्यका नाश होनेपर मुक्तावस्था पत्थरके टुकडेके समान हो जायगी ; जो कि किसी प्रकारसेभी स्पृहणीय नहीं है । संसार अवस्थामें अन्तरालमें अर्थात् कभी कभी सुख प्राप्त होता था वहभी मुक्तावस्थामें नहीं मिलनेसे वह संसारावस्थासेभी निकृष्ट होगी। चैतन्यावस्था पूर्णतया नष्ट होनेसे तत्स्वरूपधारक आत्माकाभी नाश होगा जिससे सर्वशून्यता प्राप्त होगी ।। २३ ॥
(आत्माके अकर्तृत्वमें दोष । )- सांख्य आत्माको भोक्ता मानते हैं परंतु वह कुछभी कार्य नहीं करती है ऐसा वे मानते हैं । आचार्य इस विषयमें ऐसा कहते हैं कि, यदि आत्मा अकर्ता है तो निर्लज्जमनवाले सांख्य उसको भोक्ता कैसा मानते हैं ? क्योंकि भोगनेकी क्रिया न करने पर वह भोक्ता कैसे होगा ? इसलिये कर्तृत्व और भोक्तृत्व अविनाभावी है। आत्माका ज्ञातृत्वभी बिनाकर्तृत्वके सिद्ध नहीं होता है । क्योंकि जाननेकी क्रिया करनाही ज्ञातृत्व है । अतः सांख्योंका आत्मसंबंधी अकर्तृत्ववाद सदोष है ॥ २४ ॥
यौग, भट्ट और साङख्यमतियोंने आत्मा व्यापक माना है। उसके व्यापित्वका निषेध करनेके लिये तत्त्वज्ञोंने-जिनेश्वरोंने आत्मा स्वदेहप्रमाण है ऐसा कहा है ॥ २५ ॥
१ आ. तथा २ आ. शुद्धं चैतन्यमात्रम ३ आ. प्रोक्ता साङख्यनिषेधिनी
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