Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-४. १२४)
सिद्धान्तसारः
(८९
ताल्वादयस्तु शब्दानां व्यञ्जकाः स्युःप्रदीपवत्। घटादिषु न तत्सत्यं दीपाभावेऽपि दर्शनात् ॥१२१ कर्तुरस्मरणं तावन्न युक्तं वेदवादिनाम् । जीर्णकूपादिषु व्यक्तव्यभिचारोपलम्भतः ॥ १२२ बहुनात्र किमुक्तेन हिंसाधर्मंकवादिनाम् । सर्वेषां वेदवाक्यानां श्रवणं वर्जयेत्रिधा ॥ १२३ तस्मात्पुमानशेषज्ञः कश्चित्कृत्स्नावृतिक्षयात्। सिद्धःप्रमाणतः सिद्धि देयान्मीमांसकस्य च ॥ १२४
'तालु आदिक कारण शब्दोंको व्यक्त करते हैं। इसलिये उनको प्रदीपके समान व्यंजन कहना चाहिये ' यह मीमांसकोंका कहना योग्य नहीं है । घटादि पदार्थोंको दीपक जैसे दिखाता है वैसे ताल्वादिक शब्दोंको प्रकट करते हैं, यह वचन योग्य नहीं है । घटादिक पदार्थ दीपकके अभावमें भी दिखते हैं अर्थात् हस्तस्पर्शसे घटादिक पदार्थ जाने जाते हैं। वैसे शब्द ताल्वादिकोंसे व्यक्त नहीं होते हैं, अपितु उत्पन्न होते हैं । घट जैसा चक्रादिकोंसे उत्पन्न होता है, व्यक्त नहीं होता चक्रादिक न होनेपर घट उत्पन्न नहीं होगा। दीपक हाथमें लेकर कोठरीमें हम गये और वहाँ घट न होनेपर नहीं दिखेगा तथा दीपक उसे उत्पन्न नहीं करता है। ताल्वादिकोंमें जब प्रयत्न होता है तब शब्द उत्पन्न होता है और जब उनमें प्रयत्न नहीं होता है तब शब्द उत्पन्न नहीं होता हैं । अतः व्यंजक और कारक कारणोंमें यह विशेषता है । व्यंजक होनेपर घटादि पदार्थ वहां पूर्व कालमें अंधकारादिसे आवृत होगा तो अंधकार नष्ट होनेपर वह व्यक्त होगा। परंतु व्यंजक उस घटादिकोंको उत्पन्न करने में असमर्थ हैं। कारक कारण पूर्वमें अविद्यमान घटादिकोंको उत्पन्न करते हैं ऐसा दोनोंमें अन्तर है ।। १२१ ।।
'कर्ताका अस्मरण होनेसे वेद अपौरुषेय हैं ' यह अनुमान वेदकी नित्यता सिद्ध करता है, ऐसा मीमांसावादियोंका वचन योग्य नहीं है । इसमें कर्ताका अस्मरण होना यह हेतु जीर्ण कूपादिकोंसे व्यभिचरित होता है । क्योंकि पुराने कुँए और पुराने प्रासाद जंगलमें दिखते हैं। हजारो वर्षोंके पुराने होनेसे उनके कर्ताको लोक जानते नहीं । उनको उनका अस्मरण हुआ है। एतावता वे पदार्थ अकृत्रिम, नित्य और अनादि नहीं है। उनका जरूर कोई कर्ता था। वैसे वेदके कर्ताका स्मरण न होनेसे वे नित्य हैं ऐसा मानना योग्य नहीं है । अब इस विषयमें हम ज्यादह नहीं कहते हैं । सिर्फ इतनाही कहते हैं, कि हिंसाधर्मकाही निरूपण करनेवाले संपूर्ण वेदवाक्योंका सुनना मनवचनसे और शरीरसे छोडना चाहिये ॥ १२२-१२३ ॥
इसलिये कोई पुरुष कर्मोके आवरणोंका क्षय होनेसे सर्वज्ञ होता है। ऐसा प्रमाणसे सिद्ध होता है। वह सर्वज्ञ मीमांसकोंको-परीक्षावानको सिद्धि देवें। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मोका क्षय जिसने किया है, ऐसा पुरुष जगतके संपूर्ण पदार्थोंको उनके सर्व पर्यायोंके साथ जानता है, वही सर्वज्ञ है। वह परीक्षावानको अर्थात् जैनाचार्योंको मोक्ष प्रदान करें ॥१२४॥
s. S. 12.
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