Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
(-४. १७६
ततोऽस्मदादिदेहानां स्थित्या जातु न युज्जते। विचित्रातिशयोपेता जैनेन्द्री देहसंस्थितिः॥१७६ अस्मदादिशरीरेषु ये धर्माः सन्ति तेऽपि वा। मतिज्ञानादयस्तेषां प्रसङ्गस्तत्र तत्स्थितिः ॥१७७ अथवा भुक्तिरस्त्वस्य वेदनीयस्य संभवात् । तत्स्वकार्यकरं तत्र कर्मत्वादन्यकर्मवत् ॥ १७८ तद्दपारसंसारसरणि सरतां वचः । जन्तो क्तिर्यतो जातु फलमात्रत्वसाधना ॥१७९ क्षुदादीनां निमित्तं तन्न निमित्तं प्रजायते । न क्षुदादिफलं तस्मादन्योन्याश्रयदोषतः॥ १८० अथवासातरूपस्य वेदनीयस्य सम्भवात् । तन्निमित्तत्वमस्त्येव ततो भक्तिरबाधिता ॥ १८१ तन्न सत्यं हि सामर्थ्यवैकल्यात्तस्य सर्वथा । तद्वैकल्यं च तत्रैव मोहनीयाद्यभावतः ॥ १८२ विषेऽपि भक्षिते यद्वन्मन्त्रतो निर्विषीकृते । मन्त्रिणो दाघमूर्छादिकार्य तस्मान्न दृश्यते ॥१८३ असातवेदनीयेऽपि तद्वत्सत्यपि सर्वदा । क्षुदादिदुष्टकार्यं न तस्य मोहविवर्जनात् ॥ १८४
युक्त है । यदि हमारी देहस्थितिके साथ भगवानकी देहस्थितिका मिलान करोगे तो आपकी और हमारी देहोंमें जो धर्म हैं उनका भी अर्थात् मतिज्ञानादिक धर्मोकाभी केवलियोंमें प्रसंग-स्थिति मानना पडेगा, जो कि आपकोभी मान्य नहीं है ।। १७५-१७७ ।।
(श्वेताम्बरोंका पुनः कथन)- केवलीमें वेदनीय-कर्मका संभव है अतः वह कर्म अन्यकर्मके समान अपना कार्य भूखकी और प्यासकी पीडा उत्पन्न करता है। मिथ्यात्वके दर्पसे अपारसंसारमें घुमनेवालोंका केवली कवलाहार करते हैं ऐसा वचन है। कवलाहारकी साधना केवलियोंको छोडकर अन्य प्राणियों में है ऐसा समझना चाहिये । क्षुधादिकोंको असातावेदनीय निमित्त है परंतु वह असातावेदनीय क्षुधादि-फलयुक्त नहीं होता है अर्थात असातावेदनीय कर्मका उदय होनेपरभी केवलीको उससे क्षुधादिक पीडा नहीं होती इसलिये वहाँ अन्योन्याश्रय दोष नहीं है। अर्थात् असातावेदनीयसे क्षुधा उत्पन्न होती है और क्षुधा उत्पन्न होनेसे असातावेदनीय होता है यह अन्योन्याश्रय दोष है ॥ १७८-१८० ॥
__(फिर श्वेतांबर कहते हैं)- केवलीमें असातरूपवेदनीयका संभव है इसलिये वह क्षुधाका निमित्त है और इससे मुक्ति होना निर्बाध है ॥ १८१ ॥
(आचार्य उत्तर देते हैं)- यह आपका कहना योग्य नहीं है, क्योंकि उस असातवेदनीयकर्ममें क्षुधाफल देनेका सामर्थ्य बिलकुल नहीं है। मोहनीयकर्मका अभाव होनेसे वह असात वेदनीयकर्म सामर्थ्यरहित हो गया है । इसलिये क्षुधाबाधाको वह उत्पन्न नहीं करता । जैसे मंत्रकेद्वारा निर्विष किया हुआ विष भक्षण करनेपरभी मंत्रीको वह मूर्छादिक होते हुए नहीं दीखते है । केवली भगवानमें असातवेदनीयकर्म सर्वदा रहकरभी-उदयमें आकरभी क्षुधादि दुष्ट कार्य उत्पन्न नहीं करता है, क्योंकि मोहका अभाव हो गया है। मोहके सामर्थ्यसे असातवेदनीयकर्म क्षुधादि फल उत्पन्न करता है उसके अभावमें वह अपना कार्य नहीं करता है ।। १८२-१८४ ॥
१ आ. तत्स्थिते २ आ. रस्त्यस्य ३ आ. तदस्यपार ४ आ. नातो ५ आ. साधनात् ६ आ. फलात्तत्स्या ७ आ. कृतः
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