Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
-४. २०५)
सिद्धान्तसारः
(१०१
शरीरोपचयाथं यन्न प्रमाणपरायते । क्षयाल्लाभान्तरायस्य सिद्धं नोकर्मकर्मतः ॥ २०० प्राणत्राणार्थमित्येवं दुष्टमिथ्यात्वचेष्टितम् । अपमृत्यु विमुक्तत्वाद्यतो नैतदपि प्रभोः॥ २०१ तृतीयोऽपि विकल्पो यः सोऽपि मिथ्यात्वसूचकः । तस्यानन्तसुखत्वेन तत्पीडायास्त्वसंभवात् ॥२०२ एकादश जिने प्रोक्ता बुभुक्षादिपरीषहाः । तत्कथं तनिषेधः स्यादिति व्यामोहजल्पितम् ॥ २०३ अमीषामुपचारेण तत्र सत्त्वनिरूपणात् । पारमार्थिकसत्त्वे स्यात्सोऽस्मदादिसमो मतः ॥ २०४ भोजनं रसनेनासौ स्पर्शनं स्पर्शनेन्द्रियात् । कुर्वन्केवलभागेष मिथ्यात्वं किमतः परम् ॥ २०५
उनका खंडन दिगम्बराचार्य करते हैं)- शरीरपुष्टिकेलिये भोजन करते हैं यह कहना प्रामाणिक नहीं माना जाता। क्योंकि केवलीके लाभान्तरायकर्मका पूर्णक्षय होनेसे अन्यजन दुर्लभ परमशुभ सूक्ष्म अनंत ऐसे नोकर्म परमाणु, जो कि शरीरमें बलस्थापनके हेतु होते है, प्रतिसमय आते हैं, जिनसे उनका शरीर सदा पुष्टही रहता है। प्राणरक्षणके लिये केवली आहार करते हैं ऐसा कहना दुष्ट मिथ्यात्वका कार्य है । क्योंकि केवली अपमृत्यु रहित होते हैं, अतः यह कहनाभी युक्त नहीं। भूखकी बाधा शान्त करनेकेलिये केवली आहार करते हैं यह तिसरा विकल्पभी मिथ्यात्वका सूचक है। केवली अनंतसुखी होनेसे भूखकी पीडाका उनमें संभव नहीं है ।। १९९-२०२॥
(श्वेताम्बरका पुनः कथन)-- 'एकादश जिने' इस सूत्र में आचार्योंने जिनेश्वरमें भूख, प्यास, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल ऐसे ग्यारह परीषह उत्पन्न होते है ऐसा कहा है। परंतु ' उनको वे नहीं होते हैं' ऐसा आपका कहना योग्य नहीं हैं। आचार्यश्रीने कहा कि " हे श्वेताम्बरविद्वन्, यह आपका प्रतिपादन व्यामोहसे मिथ्यात्ववश होकर हो रहा है" ॥२०३॥
इसका उत्तर सुनो- “ इन क्षुधादि परीषहोंका अस्तित्व वहां उपचारसे है। यदि पारमार्थिक-रूपसे इनका अस्तित्व होता तो जिनेश्वर अस्मदादिके समान हैं ऐसा समझना होगा।"
स्पष्टीकरण-ध्यानाग्निसे घातिकर्मरूपी इंधनोंको केवलि-भगवानने भस्म किया है ; तथा अंतराय कर्मका अभाव होनेसे उनको प्रतिसमय शुभपुद्गल समूहकी प्राप्ति होती है; इसलिये वेदनीयकर्म मोहकर्मके साहाय्यसे विरहित होनेसे स्वयोग्य प्रयोजन उत्पन्न करने में अर्थात् क्षुधादि परीषह पीडा देने में असमर्थ हुआ । अतः ध्यानोपचारके समान क्षुधादि परीषहोंका सद्भाव उपचारसे केवलीमें माना है। केवली पूर्ण ज्ञानी होनेसे एकाग्रचिन्तानिरोध नहीं होनेपरभी कर्मरजनिर्जरारूप फल-लाभ होनेसे जैसे ध्यानोपचार उनमें हैं वैसे क्षुधादिवेदनारूप परिषहोंका अभाव होनेपरभी वेदनीयकर्मोदयरूप द्रव्यपरीषहोंका सद्भाव होनेसे जिनेश्वरमें ग्यारह परिषह हैं ऐसा उपचार करना योग्य है। ये केवलीजिन रसनेन्द्रियसे भोजनका स्वाद लेते हैं और स्पर्शनेन्द्रियसे स्पर्शका अनुभव लेते हैं ऐसा यदि माना जायगा तो इससे दूसरा क्या मिथ्यात्व हो सकता है ? ॥ २०४-२०५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org