Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
-४. २४८)
सिद्धान्तसारः
(१०७
तस्यास्तीर्थकत्वं हि त्रिलोकीपतिपूजितम् । मोक्षैककारणोपेतं कथं मूढनिगद्यते ' ॥ २४१ केवली कवलं भुङ्क्ते स्त्रिया मुक्तिः सुदुर्लभा । सग्रन्थो मोक्षमार्गश्च विपरीतदृशां मतम् ॥ २४२ ज्ञानं चारित्रनिर्मुक्तं चारित्रं ज्ञानवजितम् । ते वा दर्शननिर्मुक्ते मिथ्यात्वं नैव मुञ्चतः ॥ २४३ इत्याद्यनेकमिथ्यात्वं नराणां शल्यमूजितम् । महादुःखप्रदं तेन वर्जनीयं मनीषिभिः ॥ २४४ निदानमपि शल्यत्वाद्धेयं हेयविशारदः । अयुक्तं तद्धि साधूनां सर्वव्रत विनाशकम् ॥ २४५ शस्तशस्तप्रभेदेन द्विविधं विधिकोविदाः । कथयन्ति जिनाधीशा निदानं तद्विवर्जिताः ॥ २४६ संसारस्य निमित्तं च विमुक्तेः कारणं परम् । प्रशस्तं द्विविधं जैनैः कथितं तथ्यवेदिभिः ॥ २४७ कर्मणां विच्युति बोधि समाधि भवदुःखतः । हानिमाकांक्षतो मुक्तिहेतुभूतं निगद्यते ॥ २४८
इंद्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती जिसे पूज्य मानते हैं तथा जो मोक्षके मुख्य अद्वितीय कारणसे युक्त होता है ऐसा तीर्थंकर-पद प्राप्त होता है ऐसा मूढ लोग कैसा कहते हैं ? ।। २४०-२४१ ।।
केवली कवलाहार करते हैं, और स्त्रियोंको दुर्लभ मुक्ति प्राप्त होती है और परिग्रहसहित मोक्षमार्ग है ऐसा विपरीत मिथ्यात्वियोंका मत है ।। २४२ ।।
मिथ्यात्वके अनेक प्रकार हैं- चारित्रसे रहित ज्ञान, ज्ञानरहित चारित्र और दर्शनरहित चारित्र और ज्ञान मुक्तिका हेतु मानना यह मिथ्यात्व है । यह मिथ्यात्व आत्माको नहीं छोडता इत्यादिक अनेक प्रकारका मिथ्यात्व है । इसको शल्य कहते हैं । यह शल्य मनुष्योंको दुःख देता है । यह शल्य ( मिथ्यात्व ) महादुःख देनेवाला होनेसे विद्वान् उसे छोडते हैं ।। २४३-२४४ ॥
- ( निदानशल्यका वर्णन । ) - त्याज्य भावोंको - मिथ्यात्व कषाय आदिकोंको छोडने में चतुर ऐसे गणधरादि महापुरुषोंने निदानभी प्राणिओंको दुख:द होनेसे त्याज्य माना है । साधुओंको यह शल्यधारण करना योग्य नहीं है; क्योंकि यह सब व्रतोंका नाश करता है ।। २४५ ।।
इस निदान के प्रकार जानने में निपुण और उनसे पूर्ण रहित जिनेश्वरोंने उसके प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसे दो भेद कहे हैं ।। २४६ ॥
यह प्रशस्त - निदान संसारका कारण और मोक्षकाभी उत्तम साधन है । अर्थात् सत्य वस्तुस्वरूपको जाननेवाले जैनोंने संसारनिमित्तक प्रशस्त निदान और मोक्षनिमित्तक प्रशस्त निदान ऐसे दो भेद कहे हैं ।। २४७ ॥
कर्मोंका नाश, बोधि-रत्नत्रयप्राप्ति, समाधि-धर्मध्यान, शुक्लध्यान, संसार दुःखोंका नाश आदिको चाहनेवालोंको यह प्रशस्त निदान मुक्तिका कारण माना है । अथवा जिनधर्मकी प्राप्ति होनेके लिये योग्य देश आर्य देश, योग्यकाल - चतुर्थकाल, भव- जैनके उच्चकुलोंमें जन्म, योग्य क्षेत्र
१ आ. पुण्यैः २ आ. स्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org