Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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१०८)
सिद्धान्तसारः
(४. २४९
देशं कालं भवं भावं क्षेत्रमैश्वर्यमेव वा । जिनधर्मप्रसिद्धयर्थं कांक्षतो वा दरिद्रिताम् ॥ २४९ संसारहेतुकं तद्धि निदानं जिननायकैः । कथितं हि यतो नैते जायन्ते संसृति विना ॥ २५० आद्यं पूतमनन्तैकसुखधामविधायकम् । द्वितीयं दुःखदं किञ्चिद्यदन्यभवहेतुतः ॥ २५१ अप्रशस्तं पुनद्वैधा भोगमानादिभेदतः । संसारकारणं निन्द्यं सिद्धिसौधाप्रवेशकम् ॥ २५२ भोगाशक्तिमनाः' प्राणी न जानाति हिताहितम् । अहिदष्ट इवानेकमूर्छादाहप्रलापवान् ॥२५३ मन्त्रतन्त्रादिभिः केचिज्जीवन्त्यहिविषादिताः।भोगभोगीन्द्रदष्टाश्च न जीवन्ति कथञ्चन ॥२५४ भोगाभिलाषिणा पुंसा यत्कर्मेह विधीयते । वह्निभिर्भवकोटीभिर्न स तस्यान्तमञ्चति ॥ २५५ भोगा लोकान्त्रिमोह्याशु विषयौषधयोगतः । ठका इव हठात्तेभ्यो धर्मवित्तापहारिणः ॥ २५६
स्थान जहां जैनधर्माराधक श्रावक रहते हैं और भाव-शुभ परिणाम और वैभव चाहनेवालोंको यह संसारका कारण प्रशस्त-निदान होता है । क्योंकि संसारके विना ये देश, काल, क्षेत्र, भव, भाव और ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होते हैं ऐसा जिनेश्वरोने कहा है ।। २४८-२५० ।।
पहिला जो प्रशस्तनिदान है वह पवित्र अनंत और अद्वितीय ऐसा सुखस्थान देनेवालामोक्षप्राप्ति करनेवाला है । और दूसरा प्रशस्तनिदान किञ्चित् दुःख देनेवाला है; क्योंकि अन्यभवमें जिनधर्मकी प्राप्तिके लिये देश, काल, क्षेत्र, भव, भाव और ऐश्वर्य चाहनेसे वह होता है ॥ २५१ ॥
___ अप्रशस्त-निदानकेभी दो भेद हैं, पहिला भेद भोगहेतुसे होता है और दूसरा भेद मानहेतुक है। ये दोनोंभी संसारके कारण हैं, निन्द्य है और सिद्धिमन्दिर में प्रवेश होने में बाधक हैं ॥२५२।।
जो प्राणी भोगोंकी आसक्तिमें अपना मन लगाता हैं उसे हितकर कौन है और अहितकर कौन है, इसका परिज्ञान नहीं होता। सर्पदंश जिसको हआ है ऐसे मनष्यके समान वह अनेक मूर्छा, दाह क्षौर प्रलापसे युक्त होता है । अर्थात् भोगासक्ति होनेसे उसको भोगोंमें ममत्व-बुद्धि होती है। उससे उसको दाह उत्पन्न होता है अर्थात् तृष्णा अधिकाधिकतया वृद्धिंगत होने लगती है तथा वह भोगोंकीही सतत बातें करता रहता है। सर्पके विषसे पीडित हुए कितनेक लोग मंत्रतन्त्रादिसे विष दूर होनेसे जीते है परंतु भोगरूपी महासर्पसे दंश किये गये लोग किसी प्रकारसेभी नहीं जीते हैं ।। २५३-२५४ ॥
इस जगतमें रोग और भोग अतिशय दुःख देनेवाले हैं । इस लोकमेंही रोग दुःख देते हैं परंतु ये भोग भवभवमें जीवको दुःख देते हैं। भोगाभिलाषी मनुष्य इस भोगके लिये जो कर्म करता है अर्थात् जो कर्मबंध उसको भोगाभिलाषासे होता है उसका अन्त अनेक कोटि भवोंसेभी नहीं होता है अर्थात् कोट्यवधिभवोंमें भोगाभिलाषाजन्य कर्मका उदय होता है और वह प्राणीको सन्तत दुःख देता
१ आ. भोगासक्तमना:
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