Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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८७)
सिद्धान्तसारः
(४. ११४
समानेन्द्रियग्राह्याणां समदेशकवर्तिनाम् । समानधर्मयुक्तानां युगपद्दर्शनादिह ॥ १११ तथा हि श्रोत्रमर्थानां समधमकवतिनाम् । न स्यानियतसंस्कारमिन्द्रियत्वात्सुदृष्टिवत् ॥ ११२ वेदे प्रवाहनित्यत्वमयुक्तं युक्तिशिनाम् । शब्दमात्रविशेषाभ्यां विकल्पाभ्यामतिक्रमात् ॥ ११३ शब्दमात्रस्य नित्यत्वे लौकिके' चापि तद्भवेत् । वैदिका एव नित्याः स्युःस्वल्पं तदभिधीयते॥११४
तात्पर्य यह है, कि जो कारक-कारण होते हैं वे नियमसे कार्यको उत्पन्न करते हैं, अन्यथा कारक-कारण और व्यंजककारण इनमें अन्तरही न रहेगा और चक्रादिकोंका व्यापार व्यर्थ होगा ॥ ११० ॥
कर्णके उपर ध्वनियोंद्वारा संस्कार किया जाता है, जिससे शब्द प्रगट होता है । यहभी कल्पना अनुचित है; क्योंकि यदि ध्वनिके द्वारा कान संस्कृत हुआ तो समान श्रवणधर्म धारण करनेवाले अनेक शब्द युगपत् कानके द्वारा सुने जाने चाहिये। परंतु कानसे क्रमसे शब्द सुने जाते हैं, अत: कान ध्वनिवायुसे संस्कृत होता है ऐसा नियम सिद्ध नहीं होता । जैसे आँख इंद्रिय है
और समानधर्मके पदार्थ अर्थात् देखने योग्य पदार्थोंको अंजनसे संस्कृत होकर कुछ पदार्थको देखती है और कुछ पदार्थ उससे नहीं देखे जाते हैं 'ऐसा नियम नहीं है' अर्थात् सब पदार्थोंको आँख देखती है और अपने समीपके कुछ पदार्थों को देखती है, और समीप होते हुएभी कुछ नील धवलादिक पदार्थोंको नहीं देखती ऐसा कुछ नियम नहीं । कानभी इंद्रिय हैं और आँखभी इंद्रिय है तो भी आँखके समान कानभी सब शब्दोंको युगपत नहीं सुनते हैं। अतः यहां इंद्रिय-संस्कारोंसे शब्द अभिव्यक्त होते हैं, यहभी कल्पना योग्य नहीं हैं। जैसे आँख समानेन्द्रियग्राह्य-चक्षुर्ग्राह्य और समदेशवति सभी नील धवलादि पदार्थोंको इंद्रिय होनेसे ग्रहण करती है तो भी वह नियत संस्कार युक्त नहीं होती है, वैसे कानभी समानेन्द्रियग्राह्य-कर्णेन्द्रियग्राह्य और समान धर्मवालेश्रावण धर्मवाले संपूर्ण शब्दोंको इंद्रिय होकर एकदम ग्रहण नहीं करता है अथवा ग्रहणभी करेगा तो भी उसके ऊपर वायुओंका संस्कार होगा। तभी वह ग्रहण करता है ऐसा नियम नहीं है। प्रदीपादिकोंसे अनुगृहीत आँख युगपत् अनेक घटादिक पदार्थोंको देखती है, वैसे संस्कृत-ध्वन्यनुगृहीत कान एक समयमें अनेक शब्द ग्रहण करेगा ऐसा प्रसंग आवेगा। इसलिये कान अभिन्नदेशमें स्थित पदार्थोंको-शब्दोंको ग्रहण करनेके लिये प्रतिनियतसंस्कारसे संस्कृत होता है तभी उनको ग्रहण करता है ऐसा नियम नहीं ।। १११-११२ ॥
मीमांसक वेदमें प्रवाहनित्यत्व मानते हैं। वहभी युक्तिसे विचार करनेवाले विद्वानोंको अयुक्त दिखता है । शब्दमात्रमें प्रवाहनित्यत्व और शब्दविशेषमें नित्यत्व ऐसे दोनों विकल्पोंका यहां उल्लंघन होता है अर्थात् दोनोंमें भी प्रवाहनित्यत्व सिद्ध नहीं होता। शब्दमात्रमें नित्यत्व
१ आ. लौकिकेष्वपि
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