Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-४. ६६)
सिद्धान्तसारः
( ७९
अमूर्ततापि न तस्य सर्वथा युक्तिमृच्छति । रूपस्पर्शात्मिकामूर्ते रेवाभावात्परात्मनि ॥ ६४ प्रधानं कर्म बध्नाति तन्मिथ्याजत्पजल्पितम् । न ह्यज्ञानं विजानाति हेयादेयपरिग्रहम् ॥ ६५ अचेतनत्वादज्ञानं तत्प्रधानमिति ध्रुवम् ' । स्तम्भकुम्भादयो भावाः किं क्वापि ज्ञानशालिनः॥ ६६
जब संहार होता है तब ये सृष्ट हुए बुद्ध्यादिकतत्त्व प्रकृति में अन्तर्भूत होते हैं उससे अलग नहीं रहते । प्रकृति के सत्व, रजस् और तमस् ऐसे तीनस्वभाव हैं - गुण है । महदादिकोंको व्यक्त कहते हैं क्योंकि वे दिखते हैं- प्रकट होते हैं । प्रकृतिको अव्यक्त कहते हैं उसे सामान्यभी बोलते हैं । प्रकृति व्यापक और क्रियारहित है, बुद्धयादिक व्यापक नहीं हैं । प्रकृति कारण है, बुद्ध्यादिक कार्य हैं । प्रसादादिक दिखते हैं, इसलिये प्रकृति तत्त्व सिद्ध होता है । व्यक्त जो महदादिक उनकी प्रकृति कारण है । क्योंकि प्रकृतिका महदादिकोंमें अन्वय-संबंध दिखता है । जैसे स्थास, कोश, कुसूल, घट आदिकोंमें मृत्तिकाका संबंध दीख पडता है । इत्यादिक प्रकृतितत्त्वका जो सांख्योंने वर्णन किया है, वह प्रमाणका उल्लंघन करनेवाला अर्थात् युक्तियुक्त नहीं है । मिथ्यात्व शल्यसे - मिथ्यात्व बाणसे विद्ध होनेसे उनका तज्जात वेदनासे मानो चिल्लाना है ।। ५७-६३ ।।
( उपर्युक्त प्रकृतिवादका जैन खण्डन करते हैं ) - अमूर्त आत्मा कर्मोंसे बद्ध नहीं होता ऐसा वचन सुंदर युक्तिसंगत नहीं है । अमूर्त ऐसी जो आत्माकी चेतनाशक्ति है, वह मद्यादिसे उन्मत्त होती है ऐसा दिखता है । इसलिये उसमें बंधका - कर्मबंधका दर्शन होता है | अर्थात् आत्मा अमूर्त होने से वह कर्मबद्ध नहीं होता, ऐसा नहीं कहना चाहिये । आत्मा अमूर्तिक है यह कहनाभी सर्वथा युक्तियुक्त नहीं है । अर्थात् आत्मा कथञ्चित् मूर्तिक है और कथञ्चित् अमूर्तिक है । रूप, रस, गंध, स्पर्श जिसमें रहते हैं वह मूर्ति है । ऐसी मूर्ति परमात्मामें - संसाररहित जीवों में नहीं होती, इसलिये सिद्ध परमेष्ठी अमूर्तिक हैं और कर्मबंधरहित हैं । परंतु संसारी आत्मा रूपस्पर्शादिकसे युक्त होनेसे मूर्तिक है और उसमें कर्मबंध दिखता है । भावार्थ यह है, कि आत्मा अमूर्तिक होने परभी बीजांकुरके समान अनादिकालसे मूर्तिक कर्मसे नीरक्षीरके समान एकरूप हो गया है । इसलिये कथञ्चिन्मूर्तिक है, रूपादिमान् है । कर्मके साथ अन्योन्यप्रदेशोंका प्रवेशरूप एकत्वपरिणमन हुआ है । इसलिये कथंचिन्मूर्तिक होता हुआ यह आत्मा बन्धको प्राप्त हुआ हैं ॥ ६४ ॥
प्रधान कर्मबद्ध होता है, यह कहना मिथ्या है। क्योंकि प्रधान - प्रकृति अचेतन है । अज्ञान है, इसलिये ग्राह्यग्राह्य बोध उसे कैसे होगा ? अचेतन होनेसे वह प्रधान निश्चयसे अज्ञान है। स्तंभ, कुंभ, आदिक पदार्थ क्या कहां ज्ञानी देखे गये हैं ? ॥ ६५ ॥
यह प्रधान प्रकृति व्यक्त स्वरूपवाले बुद्धि, अहंकार तन्मात्रादिकोंकी उत्पत्ति में हेतु नही है, क्योंकि वह सर्वथा नित्य है । जो सर्वथा नित्य है वह कदापि विकारयुक्त नहीं होगा ।
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१. आ. ब्रुवन्
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