Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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( ४.५६
बध्यते प्रकृतिर्मूर्तकर्मणा' मुच्यते च सा । सम्बन्धः सर्वदा दृष्टो मूर्तेष्वेव न चान्यथा ॥ ५६ स्यान्मतं प्रकृतिः सर्वा ज्ञानशून्या त्वचेतना । कथं क्रियावती येन कर्म बध्नाति मुञ्चति ॥ ५७ नैष दोषो यतः सैव सर्वज्ञा तत्त्वर्दाशिनी । जगन्निर्वर्तिका नित्या सर्वसंहारकारिणी ॥ ५८ प्रकृतेर्महान्बुद्ध्यात्मा ततोऽहङ्कार इत्यपि । गुणः षोडशकस्तस्मात्पञ्चभ्यो भूतपञ्चकम् ॥ ५९ एष स्पष्टक्रमो यस्या व्यावृत्तिः संहृतिस्तथा । सत्त्वं रजस्तमश्चेति' प्रकृतिः सर्वमुतोखी ॥ ६० सिद्धैव प्रकृतिः " सम्यक् प्रसादाद्युपदर्शनात् । व्यक्तस्य कारणं तेषु तदन्वयविलोकनात् ॥ ६१ एतत्सर्वं हि सांख्यानां प्रमाणातिगतं भुवि । मिथ्याशल्यानुविद्धानां आक्रन्द इव लक्ष्यते ॥ ६२ अमूर्तो बध्यते नैव कर्मणा नेति सुन्दरम् । अमूर्तचेतनाशक्तेर्मद्यादेर्बंन्धदर्शनात् ॥ ६३
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होनेपर वे जैनोंको कहते हैं कि, आत्मा कर्म से किसी स्थानमें और कभी बद्ध नहीं होता है, क्योंकि वह अमूर्त है । जैसे आकाश अमूर्त होनेसे निर्लेप है उसे कर्मबंध नहीं होता है । अर्थात् आत्मा सदैव बंधरहित है । जो बद्ध होती है वह प्रकृति है, वह कर्मसे बद्ध होती है और मुक्तभी होती है । कर्म मूर्त है और मूर्त पदार्थ में उसका बंध दिखता है । अमूर्त आकाश और अमूर्त आत्मामें उसका बंध नहीं दिखता है ।। ५४-५६ ।।
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सिद्धान्तसारः
इसके ऊपर जैन पुनः ऐसा कहते हैं कि, तुम्हारी मानी हुई प्रकृति सर्वज्ञान से शून्य है और अचेतन है । इसलिये वह क्रिया करनेका ज्ञान नहीं होनेसे क्रियावती कैसी होगी ? जिससे वह कर्म बांध लेती है और उससे मुक्तभी होती है इस शंकाका उत्तर सांख्य इसप्रकार देते हैं । आप जो कह रहे हैं, वह दोष नहीं है अर्थात् प्रकृतिको आप असर्वज्ञ कहते हैं यह उचित नहीं है, क्योंकि ' वही सर्वज्ञ है, तत्त्वोंको देखनेवाली है, जगत्को निर्माण करती है, नित्य है और सर्व वस्तुओं का संहार करती है ऐसा उसका स्वरूप है । उस प्रकृति से बुद्धिस्वरूप महान् नामक तत्त्व उत्पन्न होता है । विषयोंका जानना निश्चित करना यह बुद्धिका कार्य है । इस बुद्धिसे अहंकार उत्पन्न होता है, “ मैं सुंदर हूं, मैं दर्शनीय हूं " ऐसा जो अभिमान उसे अहंकार कहते हैं । इस अहंकारसे षोडशक गण उत्पन्न होता है अर्थात् अहंकारसे पांच तन्मात्रा - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह तन्मात्राओंका स्वरूप है । तथा इस अहंकारसे ग्यारह इंद्रियां; पांच बुद्धीन्द्रियां कान, स्पर्शन, आंखें, जिह्वा और नाक; पांच कर्मोन्द्रियां भाषा, हाथ, पांव, गुदद्वार और उपस्थ; तथा मन - अनेक प्रकारके संकल्प करना- विचार करना मनका कार्य है । जैसे'मैं भोजन के लिये उस घरमें जाऊंगा । वहां आज दही खानेको मिलेगा या गुड मिलेगा ' इस प्रकारके सङ्कल्प मनमें उत्पन्न होते हैं । पांच तन्मात्राओंसे पांच भूतोंकी सृष्टि होती है । जैसे शब्दसे आकाश, स्पर्शसे वायु, रूपसे तेज, रससे जल और गन्धसे पृथ्वी उत्पन्न होती है । इसप्रकार प्रकृतिका जन्यपरिवार है । प्रकृति से सृष्टिक्रम इसप्रकारसे उत्पन्न होता है । और
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१. आ. मूर्ता २. आ. तु.
३. आ. मंता ४. आ. सृष्टि: ५. आ. प्रकृतिः सिद्धैव
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