Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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( २. १९०
कालतश्च जघन्येन जीवानामात्मनः पुनः । भवान्तराणि जानाति द्वित्राण्यृ जुमतिर्महान् ॥ १९० उत्कर्षेण तु सप्ताष्टभवान्गत्यादिभेदतः । प्ररूपयति शुद्धात्मा विशुद्धतरभावतः ॥ १९१ सप्ताष्टौ च जघन्येन विपुलादिमतिर्महान् । भवान्गृह्णात्यसंख्यातानुत्कर्षेणातिशुद्धितः ॥ १९२ सूक्ष्मसूक्ष्मतरस्तावद्भावोऽपि द्वितये मतः । सर्वद्वन्द्व विनिर्मुक्तैद्वितयज्ञैर्महर्षिभिः ॥ १९३ अपातिपातितस्तावद्विशिष्टो' विपुलद्धमान् । स्वामिनां वर्धमानेन चारित्रेण विशेषतः ॥ १९४ विशुद्धिक्षेत्रसत्स्वामिविषयेभ्यो विशेषतः । अवर्धोवशिष्टश्चैष मनः पर्यय इष्यते ॥ १९५ लोकालोकप्रकाशात्मा केवलज्ञानमुत्तमम् । केवलं जायते यस्मादशेषावरणक्षयात् ॥ १९६
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सिद्धान्तसारः
( कालकी अपेक्षा दोनो मनः पर्यय ज्ञानोंकी विषयविशुद्धि । ) - कालकी अपेक्षासे जघन्यतः महान् शुद्धस्वरूप ऋजुमतिज्ञान जीवोंके और अपने दो तीन भव जानता है । और उत्कर्ष से गति आगतिके अपेक्षासे सात-आठ भव जानता है । महान् विपुलमति जघन्यसे सातआठ भव अपने और अन्योंके जानता है, तथा उत्कर्षसे अत्यंत विशुद्धता होनेसे अपने और अन्योंके असंख्यात भव गति - आगतिसे जानता है ।। १९०-१९२ ॥
( भावकी अपेक्षासे दोनों ज्ञानों में विशेषता । ) - भावकी विशुद्धता दोनों ज्ञानों में सूक्ष्म सूक्ष्मतर है अर्थात् ऋजुमतिकी जो भावकी अपेक्षासे विशुद्धता है, उससे भी अधिक विशुद्धता विपुलमतिकी है, ऐसा सर्व रागद्वेषादि द्वंद्वोंसे रहित इन दोनों ज्ञानोंको जाननेवाले महर्षियोंने माना है ।। १९३ ॥
( अप्रतिपाती और प्रतिपातीकी अपेक्षासे विशेषता । ) - विपुलद्ध मन:पर्ययके धारक मुनि क्षीणकषाय गुणस्थानमें सर्व कषायों का घात करते हैं । इसलिये वे संयमशिखरसे नीचे नहीं गिरते हैं । परंतु ऋजुमति मन:पर्ययवाले मुनि उपशांतकषायमें चारित्रमोहोदय होनेसे संयमशिखरसे च्युत होते है । विपुलमति मन:पर्ययवाले मुनि बढते हुए चारित्रके कारण ऋजुमतिवाले मुनियोंसे श्रेष्ठ होते हैं ।। १९४ ॥
( अवधि और मन:पर्ययज्ञान में विशेषता । ) - विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय इनकी अपेक्षासे अवधिज्ञान और मन:पर्ययविज्ञान में विशेष विशेषता है अर्थात् अवधिज्ञानसे मन:पर्ययज्ञान विशिष्ट माना गया है ।। १९५ ॥
स्पष्टीकरण - विशिष्ट संयमगुण जिसमें होता है उस मुनीश्वरकोही मन:पर्यय होता है । मनुष्यों में मन:पर्यय होता है; देव, नारकी और पशुओंमें नहीं होता है । गर्भज मनुष्यमेंही मन:पर्यय उत्पन्न होता है; संमूर्च्छन मनुष्यों में नहीं । गर्भजों में उत्पन्न होनेवाला वह मन:पर्ययज्ञान
१ आ. अप्रपातित्वतस्ताव २ आ. विपुलादिमान्
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