Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-३. १०५)
सिद्धान्तसारः
(६५
किञ्च ज्ञानादयो भावाः सर्वे ह्यात्मस्वभावकाः । अहेयाः सुखहेतुत्वात्ततो नैते परिग्रहाः ॥९८ कर्मोदयवशाये तु भावा नात्मस्वभावकः । हेयास्तेषु ममेदं यः सङ्कल्पः स परिग्रहः ॥ ९९ महापापानि पञ्चैव प्रभवन्ति निरन्तरम् । यस्मात्स एव साधूनां हेयः सव्रतवर्तिनाम् ॥ १०० मनोज्ञत्वामनोजत्वरागद्वेषत्ववर्जनम्' । इन्द्रियार्थेषु चैताः स्युर्भावनाः पञ्च पञ्चमे ॥ १०१ इष्टे वस्तुनि या प्रीतिः स रागो रागजितैः । कथितः सर्वमोहस्य मूलं मूलमिवायतम् ॥ १०२ सर्वसंसारमूलानां वैराणां कारणं परम् । अनिष्टे वस्तुनि प्रीतेरभावो द्वेष इष्यते ॥ १०३ ।। साधौ व्रतानि तिष्ठन्ति रागद्वेषविवर्जनात् । रागद्वेषवतः साधोः सरागा गहिणो वरम् ॥१०४ किं तेन तपसा येन न रागद्वेषवर्जनम् । रागद्वेषौ हि जीवानां दुर्गतेः कारणं मतौ ॥ १०५
नहीं है । प्रमत्तयोगसे उनका ग्रहण नहीं होता। तथा सम्यग्ज्ञानादिक भाव आत्माके स्वभाव रूप हैं, ये आत्मभाव सत्यसुखके हेतु होनेसे हेय-त्याज्य नहीं हैं । इसलिये उनको परिग्रह नहीं कहना चाहिये । कर्मोदयके वश होकर जो भाव उत्पन्न होते हैं वे आत्मस्वभावरूप नहीं होनेसे त्याज्य हैं। उनमें ये मेरे हैं ऐसा जो संकल्प होता है, उसे परिग्रह कहना चाहिये ॥ ९६-९९ ॥
जिससे हिंसा, झूठ, चोरी आदि महापाप-पंचक निरन्तर होता है वह परिग्रह सव्रतधारक मुनियोंके लिये छोडने योग्य है । जो मनोहर हैं ऐसे स्पर्शेन्द्रियादि पाँच इन्द्रियोंके विषयोंमें हर्ष नहीं मानना और जो अमनोहर-अप्रिय हैं उनमें द्वेष नहीं मानना ऐसी इस पांचवे परिग्रहत्याग महाव्रतकी पांच भावनायें हैं ॥ १००-१०१ ॥
( रागद्वेष संसारके मूल हैं। )- जो इष्ट-प्रियवस्तुमें प्रीति उत्पन्न होती है उसे रागरहित मुनीश्वर 'राग' कहते हैं । जैसे पेडके दीर्घ मूल उसके शाखा, पत्र, पुष्प, फल आदिके लिये कारण हैं , वैसे रागभाव सर्व मोहका मूल है । यदि रागभाव न होता तो मोहका जन्म कहांसे होता । अनिष्ट वस्तुओंमें जो प्रीतिका अभाव है, उसे द्वेष कहते हैं। यह द्वेष संपूर्ण संसारका मूल कारण जो वैर उसका जन्मदाता है ॥ १०२-१०३ ॥
( रागद्वेषोंका अभाव व्रतोंका कारण है। )- रागद्वेषोंका त्याग करनेसे साधुमें व्रतोंका निवास होता है। परंतु रागद्वेषसे जो साधु पूर्ण भरा हुआ है उससे रागभावयुक्त गृहस्थ अच्छे हैं, ऐसा समझना अनुचित नहीं है ॥ १०४ ॥
जिससे रागद्वेष नष्ट नहीं होते हैं, वह तपश्चरण किस काम का ? राग और द्वेष ये ही दोनो भाव जीवोंको दुर्गति देनेवाले प्रधान कारण हैं ॥ १०५ ॥
१ आ. विवर्जनम् २ आ. इन्द्रियार्थस्य ३ आ. शलमिव S. S.9.
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