Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
(३. १०६
मूप्रिलापसंमोहदाहदुःखकशिनाम् । रागद्वेषाहिदष्टानां न हेयादेयसंगतिः ॥ १०६ मातरं हन्ति हन्त्येव पितरं भ्रातरं पुनः। हन्ति बन्धून्स्त्रियो' हन्ति हन्त्यात्मानमलज्जितः॥१०७ रामां हन्ति सुतं हन्ति हन्ति देवगुरूंस्तथा । रागद्वेषविमूढात्मा व्रतं तस्य कुतस्तनम् ॥ १०८ रुणद्धि नवमात्मानं इन्द्रियार्थेषु यः पुमान् । सर्वत्रापत्पदं स स्यात्पतङ्ग इव दुर्गतौ ॥ १०९ शुभोदयवशात्प्राप्ते मनोज्ञे सुखकारिणि । न मदोद्रेकमायान्ति ये ते धन्यतमा नराः ॥ ११० तथा चाशुभतः प्राप्ते दुष्टवस्तुनि दुःखदे। क्लिश्यन्ति क्लेशनिर्मुक्ता न मनागपि पण्डिताः॥ १११ भावनाभावितान्येवं व्रतान्येतानि देहिनाम् । महाफलप्रदान्याहुः सर्वज्ञज्ञानशालिनः ॥ ११२ देशं कालं तथा क्षेत्रं भावं पात्रं विविच्य यः। समयाचारमाचाराद्देशकः स गुरुः सताम् ॥ ११३
रागद्वेषरूपी सर्पने जिनको दंश किया है, उनमें मूर्छा, अभिलाषा, प्रलाप-असत्यभाषण, संमोह-मोहित होना और दाह इत्यादिक दुःख दिखते हैं। उनकी संगति आदेय-योग्य नहीं है। जो रागद्वेषयुक्त हआ है, वह माताको मारता है, पिताको मारता है, पूनः अपने भाईको मारता है । अपनी पत्नीके भाईको मारता है, स्त्रियोंको मारता है तथा निर्लज्ज होकर अपनेकोभी मारता है । रागद्वेषसे जो मूर्ख हुआ है वह अपनी पत्नीको मारता है, पुत्रको मारता है, तथा देव और गुरुको मारता है, इसलिये उसको व्रतप्राप्ति कहांसे होगी? ॥ १०६-१०८॥ .. .
जैसे पतंग दीपकका उज्ज्वलपना देखकर अपनेको नहीं रोकता है, वह उसपर जाकर पडता है वैसे रागद्वेषवश पुरुष अपनेको नहीं रोकता हुआ इन्द्रियोंके विषयोंमे जाकर गिरता है। इसलिये वह दुर्गतिमें सर्वत्र आपत्तियोंका स्थान होता है ॥ १०९ ॥
( सज्जन संपत्ति-आपत्तिमें हर्षविषादरहित होते हैं। )- शुभ ऐसे वेदनीयकर्मके उदयसे और लाभान्तराय, भोगांतराय, उपभोगान्तराय आदि कर्मके क्षयोपशमसे मनोहर और सुखदायक ऐसी धनधान्यादि भोगोपभोग सामग्री प्राप्त होनेपर जिनका मन उद्रेकको प्राप्त नहीं होता, सगर्व नहीं होता वे पुरुष धन्यतम हैं । तथा अशुभकर्मके उदयसे दुःखदायक दुष्टवस्तु प्राप्त होनेपर जो क्लेशरहित होते हुए सुखदायक वस्तुसे रहित होनेपरभी तिलमात्रभी दुःखी नहीं होते हैं वे पण्डित हैं ॥ ११०-१११ ॥
सर्वज्ञ तीर्थकरके मुखसे प्रगट हुए भावश्रुतको धारण करनेसे शोभनेवाले गणधरोंने ये अहिंसादि पांच व्रत कहे हैं। भावनाओंसे संस्कृत व्रती पुरुषोंको ये व्रत महाफल-स्वर्ग और मोक्षफल देते हैं ऐसा कहा है ।। ११२ ॥
(गुरु कैसा होना चाहिये ।)- देश, काल, भाव, क्षेत्र और पात्र-(जिसको व्रत दिये जाते
१ आ. स्त्रियं २ आ. दुर्मतिः
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