Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-४. ४३)
सिद्धान्तसारः
(७५
शरीरारम्भकानेकभूतकार्य न चेतनः । तेषामचेतनत्वेन हेतुत्वं नैव चेतने ॥ ३९ गुडादिभ्योऽपि या जाता मदशक्तिरचेतना। चैतन्ये नैव सा जातु दृष्टान्तं प्रतिपद्यते ॥ ४० गोमयादृश्चिकादीनां शरीरोत्पत्तिदर्शनात् । चेतनेऽसिद्धरूपत्वान्न साध्यं सिद्धिमञ्चति ॥ ४१ जन्मादिमृत्युपर्यन्तं चैतन्य सिद्धिमाश्रिते । प्रागूवं सिद्ध एवासौ तत्राभावप्रसङ्गतः॥ ४२ न तत्रोत्पत्तितः सत्ता कारणाभावतः सताम् । सम्मता पूर्व एवायं ततः सिद्धः प्रमाणतः ॥ ४३
होता है । विजातीय कार्यका वह कदापि कारण नहीं होगा । जैसा कारण होता है वैसाही कार्य होता है। शरीर भूतोंका कार्य है, इसलिये शरीर पुद्गल-परमाणुओंसे उत्पन्न होता है । चैतन्य पुद्गल परमाणुओंसे नहीं उत्पन्न होता ॥ ३९ ॥
गुड, धातकीपुष्प आदि पदार्थोंसे जो मदशक्ति उत्पन्न होती है, वह यदि चेतना होती तो भूतोंसे चैतन्य उत्पन्न होता है ऐसा पक्ष सिद्ध करने में वह समुचित उदाहरण मानी जाती परंतु मदशक्ति अचेतन है, इसलिये चैतन्यके साथ उसका दृष्टान्त देना विषम पडता है। गोमयसे बिच्छु आदि जीव उत्पन्न होते हैं ऐसा कहनाभी युक्तियुक्त नहीं है । गोमयसे बिच्छुका शरीर उत्पन्न होता है। बिच्छुका आत्मा गोमयसे उत्पन्न नही होता । चैतन्य करने में गोमय असमर्थ है। पूर्वशरीर छोडकर गोमयसे बने हुए शरीरमें आत्मा आकर उसको धारण करता है। न कि स्वयं उससे उत्पन्न होता है । अन्यथा माता पिताके रजवीर्यसे पुत्रका आत्मा उत्पन्न हुआ ऐसा मानना पडेगा ॥ ४०-४१ ।।
___" जन्मसे लेकर मरणतक चैतन्य सिद्ध है परंतु उसके आगे वही यह है ऐसी सिद्धि नहीं होती " ऐसा यदि कहोगे तो आगे उसका अभाव मानना पडेगा। परंतु मृत्युके अनंतरभी वह नष्ट नहीं होता अर्थात् उसकी सत्ता पूर्वशरीर छूटनेपरभी रहती है अन्यथा नवीन शरीरमें वह कैसे प्रगट होगा ? ॥ ४२ ॥
आत्मा नवीन शरीरमें पूर्व शरीरको छोडकर आता है। इसलिये घटादिके समान वह सान्त नहीं है । वह सत् पदार्थ द्रव्यरूप होनेसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती है अर्थात् आत्मा अनादि निधन है। वह यद्यपि पूर्वशरीर छोडता है और नवीन शरीर धारण करता है तथापि पूर्व शरीरके विनाशसे उसका नाश और नवीन शरीरकी उत्पत्तिसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती। पूर्व-देव पर्यायका विनाश और मनुष्यपर्यायकी उत्पत्ति होनेपरभी वही आत्मा है, जो देवपर्यायमें था। इसलिये पूर्वकाही यह आत्मा है ऐसा मानने में कुछ विसंगति नहीं दिखती । देहसे आत्मा कथञ्चिद् भिन्न और कथञ्चिद् अभिन्न मानना चाहिये । सर्वथा देहसे आत्मा भिन्न है ऐसा
१. आ. न. हेतुत्वं हि चेतने
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