Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-४.२६)
सिद्धान्तसारः
ये वदन्ति महामोहपिशाचवशगा नराः । आत्मा नित्यो न तेषां हि धर्माधर्मव्यवस्थितिः ॥ २१ न' नित्यः कुरुते कार्य स्वभावव्यभिचारतः। तस्माच्छुभाशुभं कर्म न तस्य फलवन्मतम् ॥ २२ नित्यस्य व्यापिनो नैव क्रियमाणा कदाचन । जीवस्य जायते हिंसा ततो हिंसा कुतस्तनी ॥ २३ संयमो नियमो दानं कारुण्यं दर्शनं तपः । सर्वथा घटते तेषां कथं नित्यकवादिनाम् ॥ २४ । क्षणिके स्वीकृते जीवे क्षणादूर्व स्वभावतः । पुण्यं पापं च तत्रापि कः प्राप्नोति पुरातनम् ॥ २५ निरन्वयविनाशे तु हिंसातोरभावतः । तत्त्वमाकस्मिकं तेषां कथं मिथ्यादृशां न हि ॥ २६
वैसेही विपरीत मिथ्यात्वी जन प्रमाण और नयसे निर्णीत वस्तुको अन्यथा समझते है । महामोहपिशाचके आधीन हुए मनुष्य आत्मा सर्वथा नित्य है ऐसा कहते हैं । उनके इस मतसे पाप पुण्यकी व्यवस्था नहीं हो सकती ।। १६-२१॥
(आत्मा नित्य मानने में दोष ।)- नित्यपदार्थ कार्य करता हुआ नहीं दिखता हैं, क्यों कि कार्य करना उसके स्वभावसे विरुद्ध हैं। परिणमनशील पदार्थ कार्यकारी देखा गया है । मत्पिण्ड परिणमनशील होनेसे उससे घट कार्य होता है। आत्मा नित्य होनेसे उसमें परिणमन नही होगा। परिणमनसे शुभाशुभ कार्यका बंध होता है और उसका मधुर तथा कटुक फल मिलता है । आत्माकी नित्यतासे उसमें शुभाशुभ बंध तथा उसका फलानुभवन नहीं होता ॥ २२ ॥
आत्मा नित्य और व्यापक है, ऐसा जिन्होंने माना है उनके दृष्टिसेही यदि विचार किया जावेगा, तो व्यापक चीज क्रियाहीन होती है । आकाश व्यापक है और यह क्रियाहीन है तथा नित्यभी हैं । अर्थात् वह यदि कुछ परिणमन करेगा तो पूर्व परिणमनसे अन्य परिणमन होनेसे नित्यता नष्ट होकर अनित्यता आए बिना न रहेगी। वैसेही आत्मामें परिणमन नहीं माननेसे आत्माके द्वारा हिंसादि क्रिया कदापि नहीं होगी। क्रियासे कर्मबंध और उससे शुभाशुभ फलानुभवन जो प्रत्येक आत्मामें अनुभवमें आता है वह आत्मा नित्य माननेसे और व्यापक माननेसे न आवेगा । अतः व्यापक आत्मामें क्रियाका अभाव होनेसे हिंसाका अभाव होगा तो हिंसा कहांसे होगी ॥ २३ ।।
___ संयम, नियम, दान, दया, सम्यग्दर्शन और तप इत्यादि क्रियाओंकी और आचारोंकी नित्यवादियोंके मतसे संभावना कदापि न होगी ? ॥ २४ ॥
(आत्मा क्षणिक मानने में दोष।)-बौद्धोंने आत्मा क्षणिक मानी है। इसलिये एक क्षणके अनन्तर वह नष्ट हो जानेपर पूर्व पुण्य और पापका कौन भोक्ता होगा ? अर्थात् पुण्य जिस समय किया जाता है उसी समय उसका फल प्राप्त नहीं होता है । एकही क्षणमें कारण कार्यरूप नहीं परिणत होता है। पदार्थ अनेक क्षणवर्ती होगा तो पूर्वपर्याय नष्ट होकर द्वितीयादि पर्याय उसमें दृग्गोचर होगी। परंतु एकही समयमें पदार्थकी उत्पत्ति होती है और विनाशभी होता है तथा वह
१ आ. अनित्यः २ आ. पुण्यापुण्यम्
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